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________________ २०२ तुमने हमारे गणतंत्रों को मात्र गणराजतंत्र कह कर, तुच्छ कर दिया । क्या इन साम्राज्य- लोलुप राजाओं और हम गणपतियों में तुम कोई अन्तर नहीं देखते ?' , 'एक हद तक निश्चय ही देखता हूँ । पर मूलतः और अन्ततः कोई भेद देख नहीं पाता । मैं स्पष्ट करूँ, बात को । आदिम मानव - कुलों या कबीलों ने जब पहले पहल, पारस्परिक अस्तित्व की सुरक्षा से प्रेरित हो कर, सभ्यता के विकास में अनिवार्य होने पर, समाज को समुचित व्यवस्था देने के लिए राज्य या शासन-तंत्र रचा, तो जो अधिक बलवान और बुद्धिमान थे, जो शीर्ष पर थे, उन्होंने अपना शासन तंत्र संगठित कर, व्यवस्थापक राज्य-तंत्र का आविष्कार किया । पर मूल में उन कबीलों में व्यक्तियों के भुजबल की टक्कर और प्रतिस्पर्धा तो थी ही । सो इन कबीलों या कुलों के बलवान अधिपतियों के शक्ति-संतुलन के आधार पर ही ये कुलतंत्र स्थापित हुए । आज के हमारे गणतंत्र उन कुलतंत्रों का ही अधिक सभ्य, सुस्थापित और विकसित रूप है । पर इनके मूल में निर्णायक तत्व बल है, जनगण का हृदय या उनका सर्वोदयी कल्याण और प्रतिनिधित्व नहीं ।' 'क्या तुम हमारे गणतंत्र में जनगण का सर्वोदयी कल्याण और प्रतिनिधित्व नहीं देखते ?' 'सर्व का समान अभ्युदय तो मुझे कहीं दिखाई न पड़ा । पिछले दिनों आस-पास के राज्यों और गणराज्यों के कई सन्निवेशों और ग्रामों में घूम गया था। मैंने देखा कि चारों ओर वर्गभेद का खासा जाल बिछा है । धनी और निर्धन के बीच की खाइयाँ बहुत चौड़ी और अँधेरी हैं। कृषक, जुलाहे, बढ़ई, लुहार, स्थापत्यकार, मूर्तिकार, शिल्पी, चर्मकार, धीवर, रात-दिन अविराम कठोर परिश्रम करते हैं । उन्हीं के श्रम की नींव पर, वैशाली, राजगृही, चम्पा, श्रावस्ती, कौशाम्बी के ये गगन चुम्बी प्रासाद भवन खड़े हैं । उ खून-पसीनों की उपज से ही, इन महलों के वैभव - ऐश्वर्य और भोग-विलास फल-फूल रहे हैं । उन्हीं के द्वारा निर्मित चक्रों और फ़ौलादों पर इन सोलह महाजनपदों के दुर्भेद्य दुर्ग खड़े हैं, उनके शस्त्रागार सर्वसंहारक शस्त्रों से चमचमा रहे हैं । समस्त जम्बूद्वीप और उससे पार के द्वीप - देशान्तरों तक आवागमन कर रहे महाश्रेष्ठियों के साथ उन्हीं की अस्थियों से ढले चक्रों, कीलों, नावों और जहाजों पर गतिमान हैं । वैशाली, चम्पा, श्रावस्ती और राजगृही के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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