________________
२०१
अनसार वैशाली का हर कोई कृषक, कम्मकर, वणिक या ब्राह्मण तक हमारी शासक-परिषद् का सदस्य हो सकता है ?'
महाराज चेटक कुछ चकराये-से दीखे । फिर बोले : 'हमारी प्रजा को हमारे गणतन्त्र की शासक-परिषद् में पूर्ण विश्वास है। तो उनका प्रतिनिधित्व और सदस्यता, उसमें समाहित है।'
'आप बात को फिर टाल गये, महाराज । मैं भी एक लिच्छवि राजकुल का पुत्र हूँ। और आपकी ओर से मैं ही बात को स्पष्ट कर दूं। वस्तुस्थिति यह है कि मूलतः यह गणतन्त्र नहीं, गणराजतंत्र है। यानी प्रजाओं का नहीं, गणराजाओं का तन्त्र है। अष्टकुलीन राजवंशियों का । इन राजवंशियों के परम्परागत आभिजात्य, बाहुबल, शस्त्रबल और अपेक्षाकृत नीतिमान शासन-कौशल के प्रभाव से प्रजा इतनी दबी हुई और अभिभूत है, कि वह इनः कुल-पुत्रों को सहज ही अपना प्रतिनिधि स्वीकारे हुए है।'
'तो यह क्या हमारे गणतंत्र कहलाने को काफी नहीं ?' _ 'है भी, नहीं भी, पितृदेव ! परम्परागत बलवानों के राज्य को स्वीकारने के सिवाय, निर्बल प्रजाओं के लिए और क्या चारा है। जन्मजात ही शासित
और दमित रहने का उनमें संस्कार पड़ गया है। कुलीज राजवंशियों ने उन्हें मनवा दिया है, कि वे उनके प्रतिनिधि शासक हैं । एक हद तक वे प्रतिनिधि और उत्तरदायी हैं भी, और वह शुभ है। पर उसमें उनका स्थापितस्वार्थ भी तो है, कि प्रजाओं को संतुष्ट रख कर, वे इस रत्नगर्भा वसुन्धरा के श्रेष्ठ का निर्बाध भोग कर सकें। वज्जी, शाक्य, मल्ल, कुरू, काम्बोज, सारे ही गणतंत्रों की मूलगत स्थिति यही है। मूलतः तो वे गणतंत्र नहीं, गणराजतंत्र ही हैं।' ___ 'तो तुम्हारे विचार से, पृथ्वी पर गणतंत्र जैसी कोई चीज़ अस्तित्व में नहीं ?'
'अभी तक तो नहीं है, महाराज ! पर वह होनी चाहिये । उसे होना पड़ेगा, विकास में अनिवार्यतः आगे जा कर । उसमें सदियाँ लग सकती हैं। आपका यह वेटा विश्व के उसी भावी गणतन्त्र का स्वप्नदृष्टा है-उसका एक विनम्र दूत, यदि आप उसे पहचान सकें।' ___ 'तुम पर हमें गर्व है, आयुष्यमान् । तुम्हारी जन्मजात महिमा से हम अवगत हैं। पर गणतन्त्र और राज्यतंत्र में तुम कोई भेद नहीं देखते, आश्चर्य.!
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org