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________________ 'बर्द्धमान्', तुम तो जानते हो, हमारा वैशाली गणतन्त्र, आज संसार का सर्वश्रेष्ठ संघराज्य है। वह प्रजातन्त्र है। उसके अंतर्गत हमारा प्रत्येक प्रजाजन पूर्ण स्वतन्त्र है। शासन में वह साझीदार है। अपनी छन्द-शलाका द्वारा अपना मत व्यक्त कर के वह शासकीय निर्णय में भाग लेने का अधिकारी है। हमारा यह स्वातंत्र्य और समृद्धि मगधराज बिंबिसार को असह्य हो उठी है। हमारे समान ही अन्य गणसत्ताक राज्यों को हड़प कर रे भार्यावर्त के दूसरे राजतांत्रिक राज्यों के साथ मिल कर, समस्त भरतखण्ड पर अपना एकराट् साम्राज्य स्थापित किया चाहते हैं। इस षड्यन्त्र के चलते हमारा यह स्वतन्त्र गणराज्य निरन्तर मगध की साम्राज्य-लोलुप तलवार के आतंक तले जी रहा है।' 'वर्तमान आर्यावर्त का मानचित्र मेरी आँखों के सामने स्पष्ट है, महाराज। उसके राजकीय, आर्थिक, सामाजिक विग्रहों और संघर्षों को अपनी हथेली के रेखाजाल की तरह साफ देख और समझ-बूझ रहा हूँ। पूछता हूँ, तात. क्या वैशाली विशुद्ध गणराज्य है ? क्या ऊपर से नीचे तक के प्रत्येक वर्ग का प्रजाजन, उसके शासन-तन्त्र में सहभागी है ?' _ 'यह तो जगत-विख्यात बात है, आयुष्यमान् ।' ___ 'जहाँ तक मुझे पता है, महाराज, यह गणराज्य नहीं, कुल-राज्य है। वज्जियों के वंशानुगत अष्ट राजकुलक ही वैशाली पर राज्य करते हैं। इन अष्टकुलों के सात-हजार सात-सौ सात सदस्य ही आपके सन्थागार की शासकपरिषद् के सदस्य हो सकते हैं। राजतन्त्र तो अन्तत: इन्हीं अष्टकुलकों के हाथ में है। क्या कोई कृषक, कम्मकार, लोहार, बढ़ई, जुलाहा भी आपकी इस परिषद् का सदस्य हो सकता है ?' 'वैशाली का हर जनगण अपना राजा है, वह अपने को राजा कहता है, बर्द्धमान ! अष्टकुलक शासक-परिषद् गणतन्त्र के सारे ही वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है।' 'परम्परागत कुलतन्त्र शक्तिमान है, और उसका राज्यतंत्र नीतिमान है. निश्चय । उसने मांगलिक शासन-कौशल द्वारा प्रजा का हृदय जीत लिया है। और हर जनगण को पूर्ण स्वातंत्र्य का बोध होता है, निश्चय ! सो उन्होंने अष्टकुलक को सहज ही अपना प्रतिनिधि स्वीकार लिया है, पर मेरी बात का उत्तर आपने नहीं दिया । क्या आपकी 'प्रवेणी-पुस्तक' (कानून-ग्रन्थ) के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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