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________________ १९९ 'बेशक है, गणनाथ । लेकिन मौलिक और असली सरोकार है, मात्र सतही और सांघातिक नहीं। प्रासंगिक समस्याओं का सच्चा और अन्तिम समाधान, प्रज्ञान के केन्द्र में खड़े होकर ही पाया जा सकता है। जो व्यक्ति और वस्तु, आत्म और विश्व के सच्चे स्वरूप को न जाने, उनके बीच के मौलिक और सम्वादी सम्बन्ध का जिसे ज्ञान न हो, वह प्रासंगिक समस्या को सुलझाता नहीं, उलटे अधिक उलझाता है। जो प्रासंगिक समस्या को समक्ष पा कर, स्वयम् ही उसके प्रति राग-द्वेषी प्रतिक्रिया से ग्रस्त हो जाये, कषाय से अशान्त और आत्मछिन्न हो जाये, वह स्वयम् ही समस्या के उस दुश्चक का शिकार हो जाता है। और दुश्चक्र के अन्धड़ में जो बह जाये, वह उसे उलट कैसे सकता है ? इसी से कहना चाहता हूँ, कि जो लोक की प्रासांगिक समस्या का समाधान पाने की सच्ची वेदना से तप्त है, लोक का ऐसा प्रेमी, पहले प्रसंग से अनासक्त हो कर, आत्मस्थ हो लेता है। लोक का और अपना सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करता है। और तब उसके मोह-मुक्त चैतन्य के केन्द्र से जो क्रिया आयेगी, वह प्रतिक्रिया नहीं होगी, शुद्ध और प्रगतिशील प्रक्रिया होगी । ऐसी ही प्रज्ञानात्मक प्रक्रिया, प्रासंगिक समस्या का सच्चा, अन्तिम और विधायक समाधान प्रस्तुत कर सकती है। इसी से हो सके तो, मैं पराऐतिहासिक आत्म-स्वरूप में समाधिस्थ होकर, इतिहास और प्रासंगकिता को अपूर्व, मौलिक और नवीन परिचालना देना चाहता हूँ। इसके लिए मुझे पहले पहल करनी होगी, महाराज । पहले स्वयम् अपने को सुलझा लेना होगा, बदल देना होगा। जो स्वयम् ही उलझा है, प्रतिक्रिया के दुश्चक्र में ग्रस्त और कषायान्ध है, जो स्वयम् ही अपने को सुलझा और बदल नहीं सका है, वह इतिहास और लोक को कैसे बदल सकेगा ? · . . ___'सुनें बापू, ऐसे तमाम सतही बदलावों की बात जो करते हैं, वे दम्भी, पाखण्डी और पलातक होते हैं। वे भीतर कहीं अहंकार, स्वार्थ और प्रतिक्रिया के नासूर से अस्वस्थ और पीड़ित हैं। जो प्रसंग और इतिहास से ग्रस्त नहीं, संन्यस्त और अनासक्त होते हैं, वही प्रसंग के सच्चे परित्राता, और इतिहास के मौलिक विधाता होते हैं . . ।' ___ 'तो आज जो हमारे सामने प्रासंगिक संघर्ष है, उससे निस्तार पाने का तुम क्या उपाय सुझाते हो, आयुष्यमान् ?' 'कौन संघर्ष, तात ? स्पष्ट करें आप, तो मैं अपना नम्र मन्तव्य व्यक्त करूँ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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