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सत्ताधारियों और धनकुबेरों के कोशागार, इन्हीं श्रमिकों के रक्त-स्वेद से वाहित सुवर्ण-रत्नों से उफना रहे हैं। . पर मैंने देखा, महाराज, ये कम्मकर दीनहीन और दरिद्र हैं। अन्न-वस्त्र और साधारण जीवन-साधन का उन्हें, बेशक, अभाव नहीं । पर महानगरों के नागरिकों को उत्कृष्ट अन्न-वस्त्र, आवास, वाहन, भोग-विलास प्रदान करने वाले ये श्रमिक, निम्नतम कोटि के जीवन-साधनों पर निर्वाह करते हैं। हम महाजन कहे जाने वाले प्रभुवर्ग के लोगों ने इन्हें शूद्र, हीनजातीय और हीन-शिप्पणि जैसी संज्ञाएँ प्रदान कर रक्खी हैं। हम सत्ता के आसन पर हैं, सो सत्ताबल से उनके श्रम के उपार्जन पर अपना एकाधिकार स्थापित कर, उस सम्पत्ति का स्वामित्व हम भोगते हैं। और सम्पत्ति के सच्चे उत्पादक ये श्रमिक, हमारे मातहत रह कर शोषित विपन्नों का जीवन बिताते हैं। अपने स्वामित्व से हमने उन्हें पददलित कर रक्खा है । हम वंश-परम्परा से राज्य-सुख भोगते चले जाते हैं, और उन्हें हमने वंश-परम्परागत रूप से श्रमिक और शोषित जीवन बिताने को विवश कर छोड़ा है। हम अभिजात कुलीनों की कई पीढ़ियों ने इन कम्मकरों की हर पीढ़ी के रक्त में आत्महीनता के भाव को संस्कारित और परम्परित किया है। मानव-पुत्रों की कई-कई पीढ़ियों में हीन भाव को एक संक्रामक रोग की तरह प्रवाहित करने से बड़ा पाप और क्या हो सकता है, महाराज ? उनके रक्तकोशों, मांस, मज्जा, अस्थियों तक में हमने हीनत्व की खेती की है। · क्या इसी को हम सर्वोदयी, सर्व-कल्याणकारी गणराज्य कहते हैं ? राजतंत्रों में हो कि गणतंत्रों में हो, धनी और निधन, श्रमिक और स्वामी तथा शोषक और शोषित के बीच की यह खाई, मैंने सर्वत्र समान रूप से फैली देखी है। समझ नहीं सका कि पृथ्वी पर कहाँ है गणराज्य, सर्वोदयी कल्याणराज्य, जिसकी बात आप कर रहे हैं ?'
'आयुष्यमान्, अपना उत्कर्ष करने को हमारे गणतंत्र में तो सर्वजन स्वतंत्र हैं। यह तो व्यक्ति के अपने स्वतंत्र संकल्प और पुरुषार्थ पर है कि अपने को नीचे से उठा कर ऊपर ले जाये।' _ 'यह स्वतंत्रता मात्र हस्तिदंती है, महाराज ! हाथी के ये दिखाऊ दाँत हैं, खाने के दाँत दूसरे ही हैं। वे उसके जबड़े में छुपे हैं : वे बड़े कराल
और सर्वभक्षी हैं। आपको 'प्रवेणी-पुस्तक' के नियम-विधान और शासन विधान में, बाहर से हर प्रजाजन को मतदान का अधिकार भले ही हो, पर अधिनियम और शासन-विधान के निर्माण और उसके स्वायत्त परिवर्तन का अधिकार तो
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