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________________ १९६ मल्लिका के दोहद - स्नान से, मंगल- पुष्करिणी के चिर बन्दी जल मुक्त और पवित्र हो गये।' कराज की भृकुटियाँ टेढ़ी हो गईं । पिता सहम आये । 'वर्द्धमान, तुम एक अत्याचारी को समर्थन दे रहे हो ! हत्यारे और डाकू का पक्ष ले रहे हो ! हमारे शत्रु को तुमने अपने सर पर चढ़ा लिया ।' 'अत्याचारी, हत्यारा, डाकू शायद हमने ही उसे बनाया । स्वतन्त्र जल - तत्व पर अपना एकाधिकार स्थापित करके, उसे दुर्लभ बना कर । और ऐसी प्रमत्त हुई हमारी यह अधिकार - वासना कि उसकी रक्षा के नाम पर, गर्भवती मल्लिका पर भी, लिच्छवियों की तलवारें तनने से बाज़ न आयीं । कुलगर्व की तुष्टि के लिए सैकड़ों मानवों का खून बह गया । कौन निर्णय करे कि चोरी, हत्या, बलात्कार, शत्रुत्व का बीज कहाँ था ? और मैं तो अपना शत्रु अपने से बाहर देख ही नहीं पाता राजन् ! ' 'वर्द्धमान, तुम कौन हो ? तुम्हें पहचान नहीं पा रहा मैं ? तुम्हें समझना मेरी बुद्धि के वश का नहीं ! 'बुद्धि कब कुछ समझ पाती है, बापू । खण्ड का केवल खण्ड ज्ञान ही वह बेचारी कर सकती है । अखण्ड सत्य का ग्रहण हृदय से ही सम्भव है । आपके बेटे का निवेदन वहीं से आ रहा है ।' 'आयुष्मान्, सारे दैवज्ञ कहते हैं कि वर्द्धमानकुमार के पगतल चक्र-चिह्न से अंकित हैं । वे जन्मजात चक्रवर्ती हैं। समुद्र - पर्यन्त पृथ्वी पर होगा उनका साम्राज्य ।' 'षट् खण्ड पृथ्वी जीत कर, वृषभगिरि पर्वत की विक्रमशिला पर अपना हस्ताक्षर करनेवाला चक्रवर्ती ? जो वहाँ जा कर देखता है कि ऐसे असंख्य चक्रवर्ती पहले हो चुके हैं, और शिला पर नाम लिखने की जगह नहीं है ? तब अपने से पिछले का नाम मिटा कर, वह अपनी हार के हस्ताक्षर कर देता है : और पराजित होकर लौट आता है। हार के हस्ताक्षर करने वाला ऐसा चक्रवर्ती मैं नहीं, तात ! वह तो मैं पहले कभी हो चुका । उसे मैं पीछे छोड़ आया ।' 'तो क्या ये दैवज्ञ झूठ कहते हैं ? क्या तुम जन्मजात चक्रवर्ती नहीं ? ' 'निश्चय ही ऐसा सनाम चक्रवर्ती मैं नहीं हो सकता, जिसके नाम को आखिर मिट जाना पड़े । मैं अनाम चक्रवर्ती ही हो सकता हूँ, जिसकी अस्मिता को कोई मिटा नहीं सकता ।' 'मैं समझा नहीं, बेटा ? ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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