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१८०.
वह स्तब्ध, मुग्ध, एक अपूर्व तेजोद्भासित दृष्टि से मुझे एक टक देख रहा था । मैं प्रीति और प्रतीति की उस ज्वलन्त वेधक दृष्टि को जैसे सह न पाया ।
मैंने कहा :
'सोमेश्वर, कल फिर आ सकोगे, एक बार ' ·?'
'तुम जो चाहोगे, वह होगा ही, मान ! निर्णय तुम्हारा है, मेरा नहीं ।' और चुपचाप हमने समानान्तर चलते हुए छत पार की। मैं कब सोमेश्व से बिदा हो लोट आया, पता ही न चल सका ।
अगले दिन सवेरे :
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' आ गये, सोमेश्वर ? कल तुम व्यथित, फिर भी उद्दीप्त आये थे । कविता में अपनी व्यथा को बहा लाये थे न । ' पर शायद तुम्हें मुक्त न कर सका, व्यथित ही लौटा दिया। इसी से
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'व्यथित नहीं, समाधीत लौटा मैं, वर्द्धमान ! '
'हाँ, विस्तार में गये हम, इतिहास में फैले हम । व्यष्टि और समष्टि के प्रबल संघात से गुज़रे हम । तो उसमें व्यष्टि की व्यथा का क्षणिक उन्मोचन तो होता ही है । पर केन्द्र में जो कसक है न, वह और भी तीव्र नहीं हुई क्या ? - कल रात सोना विरह में हुआ, कि मिलन में ?'
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'वर्द्धमान, मेरी तहों के पार चले आ रहे हो तुम !
'मैं लज्जित हूँ ।'
'लज्जित क्यों होओ, सोम ? स्वभागवगत और सत्य है तुम्हारी व्यथा । वह गर्भवती और चिन्मती है । समष्टि में खोकर मुक्ति सम्भव नहीं । केन्द्र व्यष्टि में है । जहाँ से विश्व और इतिहास प्रवाहित है । व्यष्टि के केन्द्रस्थ और आत्मस्थ हुए बिना, समष्टि, विश्व और इतिहास के साथ उसका पूर्ण तादात्म्य सम्भव नहीं ।'
'कसक यदि अब भी बनी है, मान, तो क्या उसी के लिए नहीं है ? ' 'सो तो है । पर कसक में कहीं अदिति का विरह है, उसकी याद दिला रहा
1.
'वर्द्धमान' ! खोलो मुझे मनचाहा । बोलो, क्या कहना चाहते हो ?" 'यह बताओ, सोम, लड़कियों से मिलते हो कि नहीं
?'
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