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कराने वाली केवलज्ञान -विद्या उन्होंने उपलब्ध की । पार्श्व के आगे अभी ज्ञान नहीं जा सका है, सोमेश्वर !
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'इस बीच फिर एक विच्छेद और सूर्यास्त का अन्तराल देख रहा हूँ, सोमेश्वर ! क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों ही ब्रह्म-विद्या की उस तेजोमान परम्परा से विच्युत दीख रहे हैं । ब्राह्मण पतन की पराकाष्ठा पर पहुँच कर, हिंसक पशुमेध यज्ञों द्वारा, कापुरुष और हततेज सिंहासनधरों को ऐहिक धन सत्ता और पारलौकिकस्वर्ग प्राप्ति का आश्वासन देने के लिए, घनघोर कर्मकाण्डों में डूब गये हैं । ब्राह्मण और क्षत्रिय परस्पर एक-दूसरे के स्थिति - पोषक होकर अधिकाधिक पतन
महागर्त में गिरते जा रहे हैं। इस बीच वैश्यों ने अपने दुर्द्धर्ष वाणिज्य के पुरुषार्थ से, अस्तित्व के आधारभूत सुवर्ण-सम्पदा के क्षेत्र पर पूर्ण वर्चस्व जमा कर, इन ब्राह्मणों और क्षत्रियों को अपने हाथों का खिलौना बना लिया है। आज आर्यावर्त
भाग्य, शुद्ध सुवर्ण-जीवी वणिकों के हाथों में खेल रहा है, सोमेश्वर । 'हिरण्मयेण पात्रेण सत्यस्यापि हितंमुखं' : 'अरे सत्य का मुख भी सुवर्ण के पात्र में ढँक गया है !' ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज एक बारगी ही बुझ गया है।
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ज्ञानावसान की इस रात्रि में संजय वेलट्ठिपुत्र आदि तीर्थक् तपश्चर्यापूर्वक, फिर से आर्यावर्त के उस अस्तंगत ज्ञान-सूर्य की खोज में भटक रहे हैं । ये स हैं, जिज्ञासु हैं, मुमुक्षु हैं, प्रखर और पराक्रमी हैं । दीर्घ तपस्या के पथचारी हैं । पर बौद्धिक चेतना से आगे इनकी गति नहीं । परब्राह्मी सत्ता के उपरि-मानसिक ऊर्ध्व चेतना-स्तरों की विद्या इन्हें सुलभ नहीं । सो ये बुद्धि के कुतर्की अस्त्र लिये, बंजर धरती में, कुज्ञान की खेती कर रहे हैं। बड़ा ही पीड़क और करुण है यह दृश्य, सोमेश्वर ! आर्यावर्त की इस अवसान-सन्ध्या के तट पर, मेरा मन - बहुत उदास है पर उदग्र भी कम नहीं
"' 'वर्द्धमान, इस सन्ध्या में क्या किसी नई स्वर्ण उषा की आशा तुम नहीं देख पा रहे ?'
मैं सहसा ही स्तब्ध, अवाक्, अन्तर्लीन हो रहा । और फिर जैसे किसी परावाक् तृतीय पुरुष को अपने में से बोलते सुना :
'सोमेश्वर, नूतन युग का यज्ञपुरुष अवतीर्ण हो चुका है । उसमें संयुक्त रूप से ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज, आर्यावर्त की धरती पर मूर्तिमान विचरण करेगा । उस कैवल्य सूर्य की प्रतीक्षा करो, सोमेश्वर ! '
'वर्द्धमान् ं ं ंन् न् न् ं ं
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