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________________ १७८ 'इसके अनन्तर उद्दालक आरुणी और उनके पुत्र श्वेतकेतु इन तपःपूत राजर्षियों से, जीवन्त ब्रह्म-विद्या प्राप्त कर महान श्रुतर्षि हुए । छान्दोग्य उपनिषद् में उन्होंने एक अखण्ड प्रवाही सत्ता के सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की । नाना पदार्थों की स्वतन्त्र गुणात्मक सत्ता होते हुए भी, इस विराट् विश्व-तत्व में वे समष्टि रूप से अखण्ड प्रवाहित हैं । देख रहे हो, सोमेश्वर, अनेकान्त दृष्टि फिर प्रकाशित हुई । महासत्ता, विश्व प्रवाह में अभेद, अखण्ड प्रवहमान है पर अवान्तर रूप से हर पदार्थ की अपनी गुणात्मक अस्मिता भी है ही। यानी द्वैत भी, अद्वैत भी । देख रहे हो न, अनैकान्तिक चक्रावर्ती विकास क्रम । पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन, और तब उत्क्रान्त परावर्तन । .. 'फिर पांचाल के ब्राह्मण-पुत्र बालाकि को, विदेह के राजवंशी राजर्षि अजातशत्रु ने, सत्ता के भौतिक, दैहिक, प्राणिक, ऐद्रिक, मानसिक, सारे चेतना स्तरों को अतिक्रान्त कर अपनी बहत्तर हजार नाड़ियों के भीतर पर्यवसान पा कर, अन्ततः सुषुम्ना की राह सहस्रार में परब्रह्म के साथ तदाकारिता उपलब्ध करने की एक वैज्ञानिक, क्रियायोगी विद्या प्रदान की । यहाँ से योग का सूत्रपात हुआ । योग द्वारा ही ब्रह्म को जीवन- मुक्ति और परा मुक्ति में उपलब्ध करने की विद्या को सिद्ध होना था । 'योगीश्वर याज्ञवल्क्य में आकर वह पूर्णयोग सिद्ध हुआ । अपने मामागुरु से प्राप्त, रूढ़ि और जड़ कर्मकाण्ड प्रधान कृष्ण यजुर्वेद-विद्या का त्याग कर, दुर्द्धर्ष तपस्या द्वारा इस महाब्राह्मण ने सीधे सूर्य से शुक्ल यजुर्वेद - विद्या प्राप्त की । फिर कैसे उसके द्वारा इस महायोगी ने परात्पर कैवल्य - विद्या और बोधिमूलक ब्रह्मयोग को अपने जीवन में उपलब्ध किया, चरितार्थ किया : कैसे उसके सर्वांगीण, सर्वतोमुखी योग में परापूर्व से तत्काल तक की सारी मानवीय ज्ञान की उपलब्धियाँ समन्वित और सम्वादी हुईं, वह मैं तुम्हें बता ही चुका हूँ । 'इन्हीं की परम्परा में मांडूक्य और पिप्पलाद भी सिद्ध योगी हुए । उन्होंने ब्रह्मलाभ के सक्रिय योग की गोपन कुंजियाँ मांडूक्य और कठोपनिषद् में प्रदान कीं । 'काशी के राजपुत्र तीर्थंकर पार्श्वनाथ के रूप में, फिर इसी परम्परा में एक और महासूर्य राजर्षि उठा । उसने दिगम्बर अवधूत हो कर, सम्मेद शिखर पर्वत के चूड़ान्त पर, घनघोर कायोत्सर्ग की तपोसाधना की । फलतः त्रिलोक और त्रिकालवर्ती निखिल पदार्थ-जगत के एक-एक अणु-परमाणु का अनुत्तर साक्षात्कार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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