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________________ १७७ हूँ : वह कौन है ?' का सर्वोपरि आध्यात्मिक प्रश्न इसी ने उठाया। ब्रह्मज्ञान का आदि जनक यही शूद्र-कन्या इतरा का पुत्र महीदास ऐतरेय था । इसके अनुसरण में सत्यकाम जाबालि आते दिखायी पड़ते हैं । उनकी माँ जाबाला को नहीं पता था कि किस ऋषि ने उसके गर्भ में सत्यकाम को जन्म दिया। पहली बार एक आर्य-पुत्र, माँ के नाम-गोत्र से प्रसिद्ध हआ। अज्ञात-पितजात, इस जारज मनु-पुत्र ने उपनिषद्-युग में विकास का एक और सशक्त चरण भरा। . . 'और सोमेश्वर, इसी सन्धि-मुहर्त में सत्ता-प्रमत्त, वासना-प्रमत्त, लालसालम्पट भ्रष्ट ब्राह्मणत्व से टक्कर ले कर, आर्यों की प्रचण्ड नवोन्मेषी प्रज्ञाधारा को उत्तरोत्तर आगे ले जाने को, योद्धा क्षत्रिय राजा और राजपुत्र, एक हाथ में शस्त्र और दूसरे में शास्त्र लेकर, आधुनिक भारतीय पुनरुत्थान का नेतृत्व करने लगे। इन्होंने अपने बाहुबल को आत्म-बल में परिणत कर दिया। अपनी लोहे की तलवार को अपने तप:तेज में गला कर, उसमें से इन्होंने ज्ञानतेज की नयी और अमोघ तलवार ढाली। सुन रहे हो, सोमेश्वर, प्रकारान्तर से तुम इन्हीं ब्रह्मतेजस्वी क्षत्रियों के वंशधर हो । . . 'इस धारा में पांचाल के अधीश्वर राजर्षि प्रवहण जैवलि ने सर्वप्रथम, निरे द्रष्टा ब्राह्मणों के तत्वज्ञान को, आचार और पुरुषार्थ की कसौटी पर उतारा। पंचाग्नि-सिद्धान्त रच कर, इन्होंने श्रमण-पार्श्व के आगामी चतुर्याम सँवर की नींव डाली, और परापूर्व के तीर्थंकर ऋषभदेव के महाव्रती धर्म का अनजाने ही पुनरूत्थान किया। देख रहे हो न, सत्ता की चक्रावर्ती विकास-धारा । - 'आगे फिर ब्राह्मण ऋषि गाायन ने इसी जमीन पर, कट्टरपंथी वैदिक ब्राह्मणों के कर्मकाण्डों और कामलिप्सु यज्ञों का विरोध किया। कहा कि लक्ष्य, भेदाभेद से परे निरुपाधिक शुद्ध ब्रह्म का साक्षात्कार करना है । इन्होंने सौपाधिक और निरुपाधिक, दो ब्रह्म-स्वरूपों का निरूपण कर, भौतिक और आत्मिक, जगत और जगदीश्वर में सम्वाद स्थापित किया। . . 'इसके अनन्तर आये एक और क्षत्रिय योद्धा, काशीराज दिवोदास के पुत्र राजर्षि प्रतर्दन । उन्होंने भी ऐहिक और पारलौकिक कामना प्रेरित बाह्य यज्ञों का प्रचण्ड विरोध कर, आन्तरिक अग्निहोत्र का तपश्चर्या-मार्ग प्रशस्त किया। वे बोले कि : उत्तरोत्तर अपनी ही दैहिक, ऐंद्रिक, प्राणिक, मानसिक सत्ताओं की, अपनी आन्तरिक ज्ञानाग्नि में आहुति दे कर, हमें परात्पर ब्रह्म तक पहुँचना होगा। उसे मात्र ज्ञान तक सीमित न रख कर, जीवन में और आचार में अवतरित करना होगा । . . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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