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________________ १८१ सोम किंचित् लजा आया । चेहरे पर उसके रक्ताभा झलक उठी । वह चुप रहा, मैं उसे देखता रहा । वह बोला, कुछ रुँधा-सा : 'लड़कियों की क्या कमी है, वर्द्धमान ! सब जगह वे हैं, और सामने आती ही हैं '' 'देखता हूँ, उनसे बच रहे हो । किसी ख़ास लड़की की खोज में हो क्या ? ' 'मान !' 'मतलब, किसी अदिति की खोज में ? ' 'खोज कर क्या होगा, कहीं होगी तो आयेगी ही . 'वह तो जब आनी होगी, तब आ जायेगी । तब तक यों विमुख और बच कर चलोगे, तो उलझन बढ़ेगी और अदिति उसमें लुप्त हो रहेगी । द्वार बन्द करके बैठे दीखते हो !' तुम तो 'ब्रह्मचर्य के अतिरिक्त, मुझे मिलन कहीं दीखता नहीं, वर्द्धमान ।' 'लेकिन तुम्हारी कविता में जो अदिति की पुकार है, उसे क्या कहोगे ? स्त्री से तुम्हारा सरोकार मूलगामी है। तब भी तुम समझते हो कि स्त्री से मुँह फेर कर ही ब्रह्म में चर्या संभव है ? स्त्री में ब्रह्म न देख सको, तो उससे निस्तार कहाँ ?' 'ब्रह्म तो सर्वत्र है, मान । पर उसमें चर्या तो भीतर अन्तर्मुख रह कर ही सम्भव है न । बहिर्मुख होकर तो वासना तृष्णा का अन्त नहीं दीखता मुझे । और उसमें प्राप्ति कहाँ ·?' 'अन्तर्मुख होकर, कोई विमुख कैसे रह सकता है ? जो उन्मुख नहीं, वह अन्तर्मुख नहीं, अधोमुख लगता है मुझे । शुतुरमुर्ग की तरह । स्त्री को सन्मुख लोगे, तो वह अनायास भीतर समा जायेगी, और रिक्त भर कर मुक्त कर देगी । जीवन की अभिव्यक्ति में 'वह एक' ही तो दो, और फिर बहु हुआ है। रिक्त और विरह भीतर दिया गया है, कि जीवन उस व्यथा में से रस खींचकर वर्द्धमान हो । विरह जहाँ तीव्रतम है, वहीं पूर्णतम मिलन सम्भव है । नारी को सामने पाकर, शायद तुम भूल जाते हो कि 'वह एक' ही तो दो हुआ है: नर और नारी । तब इनमें से केवल एक यानी अर्द्धांग पर ही निगाह रख कर, उसकी जो उत्तरांशिनी बाहर चली आयी है जीवन की लीला के लिए, उसे अन्य या पर समझ कर उससे विमुख होओगे, तो अखण्ड और पूर्ण कैसे हो सकोगे ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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