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________________ १७२ 'नकार नहीं, यह पूर्ण स्वीकार का अनैकान्तिक रास्ता है, सीमा में से भूमा में जाने की एक सहज कुंजी है यह । पूर्ण अखण्ड तक पहुँचने के लिए, यह खण्ड अपूर्ण से निष्क्रमण का द्योतक है । यही नहीं, यही नहीं, और भी है ! इतना ही नहीं, इतना ही नहीं, और भी है ! इति यहाँ नहीं, इति यहाँ नहीं, और भी है ! अन्त यहीं नहीं, अन्त यहीं नहीं, और भी है ! यानी इदम् से तदम् तक, सान्त से अनन्त तक, क्रमशः सम्वादी रूप से, सहज पहुँचने की कुंजी है-यह याज्ञवल्क्य का नेति नेति ।' 'तुम कितना साफ और आर-पार देखते हो, काश्यप ! अद्भुत् । अच्छा, यह जो तुम सता कहते हो न, वह बहुत धुंधली लगती है। परिभाषा उसकी सम्भव है क्या ?' . 'अन्तिम सत्ता, सत्, अपरिभाषेय है, अनिर्वच है । वह अनेकान्त है, अनन्त है। अनन्त और अनेकान्त कथ्य नहीं । कथन मात्र सापेक्ष ही हो सकता है।' 'तुमने कहा कि ईश्वर कर्तृत्व है भी, नहीं भी । क्या कोई एकमेवाऽद्वितीयं, सर्वव्याप्त, अद्वैत परब्रह्म, कर्ता ईश्वर तुम्हें दीखता है कहीं?' .. 'मैंने कहा न, भाविक उस परमार्थिक सत्ता को भगवान कहता है, तात्विक उसी को केवल परम तत्व, परम सत्ता। यह केवल दृष्टि-भेद है । सत् अनेकान्त है, तो उसके ज्ञाता-द्रष्टाओं की दृष्टि में भेद हो ही सकता है। आत्मा, परमात्मा, विश्वात्मा, विश्व, वस्तु, में जो अभेद है देखते हैं, वह महासत्ता की अपेक्षा । जो भेद देखते हैं, वह अवान्तर सत्ता की अपेक्षा । भेद-अभेद, द्वैत-अद्वैत ये सब बौद्धिक ज्ञान से उपजी संज्ञाएँ हैं । परम तत्व बुद्धिगम्य नहीं, बोध-गम्य है, कैवल्य गम्य है । भेद-विज्ञान बौद्धिक अपरा विद्या है । अभेदज्ञान आनुभूतिक परा विद्या है। वह पारमार्थिक सत्ता, भेद-अभेद, द्वैत-अद्वैत, भाव-विभाव, नित्य-अनित्य के सारे भेदज्ञान से परे है। . . ... 'इसका कारण यह है, सोम, कि शुद्ध सत्ता अत्यन्त सुनम्य, प्रवाही, अनन्त परिणामी है। जो जिस रूप में उसे पाना चाहता है, उसी रूप में उसे वह उपलब्ध हो जाती है। क्योंकि वह अनेकान्त और अनन्त है। जिसने उसे ईश्वर रूप में पाने की अभीप्सा की, उसे उसी रूप में उसने पूर्ण साक्षात्कार कराया। जिसने उसका शुद्ध आत्म-साक्षात्कार या तत्व-साक्षात्कार पाना चाहा, उसको उसी रूप में वह उपलब्ध हुई। अब जो अकथ और अनन्त है, उस में असम्भव क्या है, और उसको लेकर दृष्टि विशेष का कोई भी मत या सम्प्रदाय बनेगा, तो वह मिथ्यादृष्टि ही हो सकता है। विरोधी आग्रह मात्र मिथ्यात्व है। सब के प्रति स्वीकारात्मक समर्पण, समन्वय ही एकमात्र सम्बुद्ध सम्यग्दर्शन कहा जा सकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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