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है । सत्ता के परिणमन अनेक भावों में हैं । सो हरेक को वह स्व-भावानुसार भासती है । उसको लेकर जो झगड़े में पड़े हैं, वे एकान्ती और अज्ञानी हैं ।'
'लेकिन वर्द्धमान, देख तो रहे हो, वैदिक अग्निहोत्रियों की भी कई शाखाएँ हैं । उपनिषद् के ब्रह्मज्ञानी ऋषियों के भी कई सम्प्रदाय हैं, शाखाएँ हैं । और तुम लोगों का कुल पार्श्वनुयायी है। उनका सिद्धान्त अलग है । वे अपने को जैन श्रावक कहते हैं । उनके मुनि, ऋषि नहीं, श्रमण कहलाते हैं । सब में विवाद हैं, विग्रह हैं। तुम भी तो जैन ही हो न, वर्द्धमान ?'
'नहीं, मैं जैन नहीं, सोमेश्वर । जिन होना चाहता हूँ, तो जैन हो कर कैसे रह सकता हूँ ? अपने को जैन कहूँगा तो सम्प्रदायी, विवादी हो जाऊँगा । एकान्तवादी हो जाऊँगा । और जो एकान्तवादी है, वह सम्यक् दृष्टि कैसे हो सकता है । वह तो मिथ्यादृष्टि ही हो सकता है । मैं अनेकान्ती हूँ, सो जैन नहीं हो सकता, किसी परम्परा या सम्प्रदाय का अनुयायी नहीं हो सकता । मात्र आत्मदर्शी, आत्मानुयायी, स्वयम् आप हो सकता हूँ। जो जिन है, वही ब्रह्म है । ऋषि प्रायः सत् और ऋत् का केवल ज्ञाता द्रष्टा होता है : श्रमण में वही शुद्ध दर्शन-ज्ञान तपस् - युक्त होकर आचार बनता है । राजर्षि जैवलि, राजर्षि अजातशत्रु, राजर्षि प्रतर्दन में, ब्राह्मण उत्तरोत्तर श्रमण भी होता गया । याज्ञवल्क्य में इनका उदात्त सर्वतोमुखी समन्वय प्रकट हुआ । नचिकेतस् में वह और भी उत्क्रान्त हुआ । महाश्रमण पार्श्वनाथ में सत्, ऋत् और तपस् की यह संयुति अपने चूड़ान्त उत्कर्ष पर पहुँची ।
'फिर तुम्हें अपने को उनका अनुयायी कहने में संकोच क्यों ?'
'मेरे मन हर अनुगमन, एक हद के बाद मिथ्या दर्शन हो ही जाता है । अनुयायी एकान्तवादी हुए बिना रह नहीं सकता । शुद्ध सत्यार्थी, अनुयायी और स्थिति- पोषक हो नहीं सकता । सत्य और मुक्ति के मार्ग की कोई पक्की सड़क नहीं बन सकती । हर परम सत्य के खोजी को, अपने स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार, एक कुँवारा जंगल चीर कर अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयम् पा लेना होता है । पार्श्वनाथ पर मैं समाप्त कैसे हो सकता हूँ ! मेरी खोज उनसे आगे भी तो सकती है। सत्ता यदि अनन्त है, तो जीवन में, व्यक्ति में, उसकी सम्भावना भी तो अनन्त है । सो मैं जैन नहीं सोम, निरन्तर वर्द्धमान महावीर हूँ । स्वयम् आप हूँ ।'
'साधु, साधु, मित्र ! तुम तो सचमुच अपने नाम के अनुरूप ही निरन्तर वर्द्धमान हो । तो तुम मानते हो, कि विकास प्रगति जैसा कुछ है ?'
'सत्ता अनन्त है, और निरन्तर परिणामी है, तो विकास प्रगति है ही । पर वह सीधी रेखा में नहीं, चक्रावर्ती है ।'
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