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________________ 'नारी का त्याग करके, या उसे ले कर के !' 'अतिक्रान्त करके, जिसमें त्याग और ग्रहण का भेद नहीं। तब जो बाहर है, उसकी स्थिति बाहर अनिवार्य नहीं रहती, भीतर स्यगत, आत्मगत हो जाती है।' 'संन्यास के समय वे मैत्रेयी को त्याग तो गये ही।' 'त्याग नहीं गये, आत्मसात् कर गये। बाहरी सम्बन्ध अनिवार्य न रहा । अहंकाम, आत्मकाम हो गया, आप्तकाम हो गया।' 'समझा नहीं।' 'याज्ञवल्क्य ने उस क्षण जो आत्म-निरूपण मैत्रेयी के समक्ष किया, उससे वह स्पष्ट है । प्राथमिक अवस्था में , जीवन में सौन्दर्य, प्रेम, दाम्पत्य, घर, सन्तान, स्वजन-बांधव, देवी-देवता, समाज, राष्ट्र, परोपकार, विश्व-सेवा आदि में जो हमारा अनुराग है, वह अपने आत्म को लेकर है, उन वस्तुओं या व्यक्तियों को लेकर नहीं। उनमें हम अपने ही को प्रेम करते हैं। उत्तरोत्तर अनुभव से इस अहंकाम का मिथ्यात्व साक्षात् होने लगता है। प्रत्यय होता है, कि प्रेम अन्ततः आत्मगत है, परगत नहीं। हम सबमें अपने ही को प्रेम करते हैं, उनको नहीं । क्रमशः निष्कान्त होकर, यही अहंकाम, शुद्ध आत्मकाम हो जाता है । यह अहम् ही सोहम् हो जाता है। अहंकार सर्वाकार हो जाता है । ममता, समता हो जाती है । स्वार्थ ही पराकोटि पर पहुँच कर परमार्थ हो जाता है । तब बाहर के सर्व में आसक्ति नहीं, स्वार्थ नहीं, परमार्थ भाव हो जाता है। ___याज्ञवल्क्य की यह विशेषता रही, सोम, कि उन्होंने आत्मा के विकास-क्रम में, जीवन की हर चीज को, सम्बन्ध को विधायक स्वीकृति दी है । यथास्थान स्वीकारा है। विकास में आपो आप ही, आज का अहंकाम प्रेम, यथाक्रम शुद्ध आत्मकाम हो रहेगा। उन्होंने अहंगत आत्मकाम और सर्वगत आत्मकाम में, प्रकार-भेद नहीं देखा, केवल गुण-भेद देखा है । विरोध या विसंगति नहीं देखी : सामंजस्य, संगति, सम्वाद देखा है । त्याग और ग्रहण, भोग और योग का उनके यहाँ सहज समन्वय हुआ है। उनकी उपलब्धि सर्व-समावेशी, अविरोधी और विधायक है । इसी से मैं उनको पूर्णयोगी मानता हूँ । लोक और लोकोत्तर, धर्म और कर्म, स्व और पर के, सम्यक् स्वरूप और सम्बन्ध का उन्होंने साक्षात्कार कर लिया था। इसी से वे योगीश्वर थे। परापूर्वकाल में राजर्षि भरत ऐसे ही एक पूर्ण योगीश्वर हो गये। उनकी यौगिक स्थिति, स्वयम् भगवान ऋषभदेव से उच्चतर कक्षा की थी। स्वयम् तीर्थंकर पिता ऋषभ ने भरत की इस महिमा को स्वीकारा था।' ___'समाधीत हुआ, वर्द्धमान ! लेकिन यह जो 'नेति-नेति' याज्ञवल्क्य ने कहा, तो इसमें नकार नहीं है क्या?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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