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________________ 'तो फिर उनके जीवन में, बाहर से इन स्त्रियों की अनिवार्यता समझ न सका।' 'अन्ततः बाहर-भीतर जैसा कुछ है ही नहीं । सत्ता के भीतर जो स्वतःस्फूर्त परिणमन है, उसी का रूपात्मक परिणाम जीवन है । भीतर के उपादान से ही ये स्त्रियां उनके जीवन में आयीं थीं।' 'उपादान किसे कहते हो ?' 'भीतर की स्वतन्त्र चिति-शक्ति । भीतर की अनन्त-सम्भावी आत्मशक्ति । स्वयंप्रज्ञ, स्वयं-प्रचेतस् सत्ता । वही अन्ततः निर्णायक है।' 'यह तो कुछ ईश्वरी-शक्ति जैसा हुआ ?' 'शब्द पर मैं नहीं अटकता। भाविक जिसे ईश्वर कहने को विवश है, तात्विक उसी को शुद्ध परम सत्ता कहता है।' 'तो तुम ईश्वर-कर्त्त त्व पर पहुँचे ?' 'हाँ, और नहीं भी ! कहीं कोई, हम से अलग, वस्तु से अलग, कर्ता ईश्वर है, ऐसा नहीं । वस्तु मात्र के भीतर जो उसकी ज्ञाता, द्रष्टा, स्वयं-संचालिका, स्वधा, स्वयम्भु प्रज्ञा है, वही ईश्वरी शक्ति है । सत्ता, उपादान, परिणमन, की जो शुद्ध क्रिया, वही ईश्वरी शक्ति । भक्त के भाव में वही भगवद्-तत्व है, ज्ञानी के ज्ञान में वही शुद्ध सत्-तत्व है ।' तो कहना चाहते हो , कि याज्ञवल्क्य के जीवन में ये स्त्रियाँ उनकी कामना से न आईं, उनकी अन्तःसत्ता या उपादान के निर्णय से आई ?' ___ 'निश्चय । भीतर का जो आत्म है न, वही अपने रूपात्मक परिणमन में आत्मकाम होता है । कामना उनमें हुई नारी की, तो इस परिणमन के भीतर से ही। वह निरी लिप्सा नहीं, अभीप्सा थी, उच्चतर में संक्रान्त होने की।' 'तो इन स्त्रियों को पाना, उनकी आत्म-परिपूर्ति में अनिवार्य था ?' 'हो सकता है। उनका जीवन इसका प्रमाण है। भार्या कात्यायनी और जाया मैत्रेयी विधायक शक्तियों के रूप में दीखती हैं । ये संस्थापक यानी वादी शक्तियाँ हैं । गार्गी प्रतिवादी शक्ति थी। उसके प्रतिवाद से वे और भी प्रबुद्ध और चैतन्य हए। तब वादी और प्रतिवादी शक्तियों के संघात से, संवाद सिद्ध हुआ उनके जीवन में । वे समरस और प्रगत हुए।' 'प्रगत से मतलब ?' 'पूर्णत्व की दिशा में आगे बढ़े !' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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