________________
१६३
सो बह आया। एक अजस्र स्वर-धारा में ऊर्ध्व, अतल, अनन्त के आयाम एक बारगी ही कशमकश करते हुए सामने आने लगे। उसने पढ़ा : 'देख रहा हूँ, परापूर्व काल में कमी एक जलाप्लावन :
- सृष्टि उसमें हो गयी विसर्जन : खो गया था काल का मान, होने का भान । · · पता नहीं, कौन बचा, किसने क्या रचा । सुनता हूँ कुछ नाम : अत्री, अंगिरस, वशिष्ठ, विश्वामित्र, प्रचेतस्, भारद्वाज : आप ही अपने को करके सम्बोधन, इन आदि ऋषियों ने किया ऋग्वेद का ऋचागान : उपास्य और उपासक के भेद से अतीत यह था स्वचेतस्, स्व-संवेदित कवियों का आत्मगान । सम्मुख पा कर विराट् अनन्त प्रकृति को ये हुए मुग्ध, स्मयमान । प्रश्नायित होकर पुकार उठे ये : कहाँ से यह सब आ रहा है, कहाँ को जा रहा है, कब से है यह और कैसे हुआ यह सब ? ये सब कवि थे, उशनस् थे, सहज ही मावित थे, तर्कातीत अपने को पहचानने की पीड़ा से ये थे आत्माकुल ।
• • 'प्रश्नों का प्रश्न एक गूंजा इन ऋषियों के मानस-मण्डल में : कहाँ से हुआ है यह निखिल आविर्मान ? प्रश्न उद्गीत हुआ : उत्तर में ऋचाएँ उद्गीत हुई : कविता अवतीर्ण हुई। जलाप्लावन से पूर्व कोई जातीय स्मृति इनकी थी नहीं : सो इन जल-पुत्रों ने उत्तर में गाया : आदि में जल है,
केवल जल · जलजलान्त : • देख रहा हूँ, जाने किस अज्ञात अन्धकार के विराट् गुम्बद में से सहसा ही आदि जलस्रोत का उत्सरण :
एक विस्तार जलजलायमान ! · · यह जल कहाँ से आया ? उत्तर में अघमर्षण को हुआ काल-मान :
काल-तत्व, सम्वत्सर, ऋतुचक्र में से जल हुआ है आविर्मान । . . 'बोले प्रजापति परमेष्ठिन् : काल नहीं, आदि में काम था-वैश्विक काम । बोले हिरण्य-गर्भः नहीं, आदि में था हिरण्य-गर्भ, अपना ही बीज आप : बोले नारायण : सृष्टि-पूर्व सूर्य थे, उनमें से जल आये,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org