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जल में से फिर सूर्य आये : वही हैं आदि और अनन्तर । ब्रह्मनस्पति बोले : जल आये शून्य में से, कुछ नहीं में से । बोले अनिल : आदि में वायु थे, वायु से जल जन्मे :
__यों हुआ काल-भान, तत्व-मान । . . किन्तु कौन किसमें से ? : प्रश्न का अन्त नहीं · · · !
· · 'प्रश्न और मूर्त हुआ : किस वृक्ष-वन में से यह सब आकृत हुआ ? दृष्यमान परिवर्तमान जगत में, प्रतीयमान भूयमान सृष्टि में
कौन शक्ति है कारणभूत, कौन वह प्रचेतस् है ? अघमर्षण और परमेष्ठिन् ने कहा : तपस् में से सर्जन है : जल स्वतः उन्मेषित हुए तो तपस् जन्मे : उनमें से गर्मित काल : वही रोहित सूर्य हो प्रकट-आदि दैवत् सहस्राक्ष काल-देव, ऋतु-चक्री, सप्त-किरण-वल्गा, सप्ताश्व-रथ-आरोही : काल ही आदि ब्रह्म, उनमें सब अस्तिमान गतिमान प्रगतिमान ।
· · 'प्रश्न और आगे गया : काल भी कहाँ से आया ?
__आदि में कुछ था या था ही नहीं ? सत् में से सत् आया, कि असत् में से सत् आया ? · : बोले परमेष्ठिन् : सत् भी नहीं, असत् भी नहीं :
केवल जल, अनादि जल, अनन्त जल : आदि तत्व अस्ति भी नहीं, नास्ति भी नहीं : वह केवल गहन गभीर जल : आप अपने से श्वसित् स्वधा संचालित , आप अपना उद्गम : उसमें से काल, सूर्य, ऋतुएँ, परिवर्तन, आकार, विश्व स्वतः प्रवर्तमान : पदार्थ से भिन्न, उसका कर्ता चालक कोई नहीं :
अपनी ही गति में से आप वह आविर्मान, भूयमान, प्रवर्तमान । मनुज, द्रष्टा, सूर्य, मनस् से भी पूर्व, आप ही जलोभूद्त
विश्व-तत्व अपना ही प्रवर्तक है ।
· · 'तब आये ब्रह्मनस्पति, बोले : अनस्ति में से अस्ति हुई : शून्य में से सृष्टि हुई : असत् में से सत् हुआ : असत् ही अनादि अनन्त अदिति, जनेता सृष्टि की : वैश्विक काम दक्षा में से जन्मी अदिति : अदिति में से फिर जन्मी दक्षा
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