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ग्रीव को द्वंहयुद्ध के लिए आवाहन दिया । निश्चल खड़े रहकर कहा : 'आक्रमण करो मुझ पर, अश्वग्रीव !' : निःशस्त्र भुजा उठाकर उसने चुनौती दी । अश्वग्रीव ने हुँकार कर चक्र चलाया, चक्र त्रिपृष्ठ की प्रदक्षिणा देकर उसकी भुजा पर आ बैठा। खेल-खेल में, त्रिपृष्ठ ने उसे हवा में उछाल दिया : चक्र सन्नाता हुआ अश्वग्रीव की गर्दन के पार हो गया । त्रिपृष्ठ पूर्व वैर के प्रतिशोध से तुष्ट होकर, गर्वपूर्वक अट्टहास कर उठा : “मात्र मेरे चक्र ने तुझे धूलिसात् कर दिया, तेरा चिरदिन का उद्धत अभिमान मिट्टी में मिल गया !'
वैरी का अभिमान चूर-चूर हो गया पर विजेता का अभिमान हरसंभव नियति को चुनौती देने लगा। तीन खण्ड पृथ्वी कम पड़ गयी : त्रिलोक और त्रिकाल को अपनी चरण-धूलि बनाने को वह प्रमत्त हो उठा । प्राण का यह उद्दण्ड आवेग, सारी संयम- मर्यादाएँ तोड़कर, पृथ्वी के हर पदार्थ को अपनी विषयाग्नि में आहुत करता चला गया । लोक और काल के छोरों पर पछाड़ें खाकर भी उसे चैन न मिला। हर लक्ष्य से टकराकर वह गुणानुगुणित होता गया । जब कहीं भी उसे जी चाहा प्रतिरोध न मिला, तो अपने चरम वेग से उन्मत्त होकर, वह लोक के अतलान्त में, सातवीं पृथ्वी पर आ पड़ा । महातमः प्रभा पृथ्वी : सातव नरक ।
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घनोदधि- वातवलय पर आश्रित इस पृथ्वी पर, घनघोर प्रलय - डमरू सा घोष करता हुआ अपरम्पार तमिश्रा का समन्दर तटहीन अन्तरिक्ष में घहराता रहता है । इसकी हर अन्ध लहर में कोटि-कोटि नरक हैं। हर नरक में लावा की उबलती नदियों पर, असिधार पत्रों वाले वृक्षों की बेशुमार श्रेणियां हैं। इस नीरन्ध्र अन्धकार राज्य की भी अपनी एक प्रभा है। कृष्ण प्रभा । क्या तमस की यह प्रगाढ़ता, चरम संत्रास की यह घुटन, अपनी ही अनिर्वारता के प्रवेग से, अपने पटलों को न भेद जायेगी ? अन्धता ऐसी कि, उसे प्रभा होने के सिवाय चारा नहीं है । वासुदेव की प्राणोर्जा इस महातमस् - राज्य को भेदे बिना कैसे चैन ले सकती है ? पाप इससे आगे नहीं जा सकता तो वह अपनी पराकाष्ठा पर प्रभा होकर रहेगा । यातना इससे आगे नहीं जा सकती तो अपने परान्त पर वह यति होकर रहेगी । और त्रास अन्ततः तितिर्षा के सिवा और क्या हो सकता है ? और तितिर्षा तुरीया के नीलान्त को भेदेगी ही । सातवें नरक जो आया है, वह एक दिन ऊर्ध्वान्त में सिद्धारूढ़ होगा ही ।
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- पाप का समर्थन नहीं है यह : मात्र उसकी प्ररूपणा है । उसका बोध आज जितना स्पष्ट और अविकल्प पहले कभी नहीं हुआ । वैतरणी की तिमिर
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