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________________ के सुरम्य उद्यान से बेहद ईया हुई। पिता ने लाडिले बेटे की इच्छा पूरी करने का षड़यंत्र रचा। कुमार विश्वनन्दी को किसी युद्ध पर भेज दिया। युद्ध जीतकर लोटे विश्व ने पाया कि विशाख उसके उद्यान का स्वामी हो गया है। एक तीव्र आघात से उसका उद्यान-स्वप्न छिन्न हो गया । नहीं - ‘नहीं है उसके स्वप्न का उद्यान यहाँ बाहर कहीं ! वह उद्यान, जिसकी प्रभुता अखण्ड रह सके ।... विरक्त होकर वह वन-गमन कर मया। अपने आन्तर उद्यान की खोज में, वह भूखप्यास, तन, मन, वसन की सुध भूल दिगम्बर विचरने लगा। अति कृषकाय वह तापस एक बार मथुरा के राजमार्ग पर एक गाय की लपेट में आकर गिर गया। . . संयोगवशात् इस समय मथुरा में आया, प्रमत्त दुराचारी विशाखनन्दी, एक वेश्या की छत से यह दृश्य देख अट्टहास कर उठा : 'वाहरे तपस्वी, वाह तेरा आत्मबल, एक बेचारी गाय की टक्कर से धूलिसात हो गया !' तपस्वी की संचित योगाग्नि भभक उठी । मन ही मन उसने संकल्प किया : 'अच्छा, किसी दिन मेरा तपोबल, तेरे इस दुर्दान्त अभिमान को चूर-चूर कर देगा । छिन्न-भिन्न कर फेंक देगा तुझे, धूलभरी हवाओं पर !' 'अमोघ होता है योगी का संकल्प । वह ब्रह्माण्ड पर लिख जाता है। जन्म और मृत्यु के कई अंधेरों-उजालों को पार करते इस संकल्पी की उग्र कषाय ने, उसे लोक की शील-मर्यादा तोड़कर जन्म दिया। • पोतनपुर के दुर्दण्ड प्रतापी राजा प्रजापति ने अपनी ही पुत्री मृगावती पर आसक्त होकर उसे पट्ट-महिषी बना लिया । उसकी विषम कोख से विश्वनन्दी त्रिपृष्ठ नामा प्रथम वासुदेव होकर जन्मा। तमालपत्र-सा श्याम वर्ण, पीठ पर तीन अस्थि-बन्ध धारण किये, वह अपने बाहुबल से त्रिखण्ड पृथ्वी का अधीश्वर अर्ध-चक्री हुआ। समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी पर उसका निसर्गजात चक्र शासन करता था। विजयाध की दक्षिण श्रेणी के विद्याधर राजा ज्वलनजटि की देवांमना-सी रूपसी कन्या स्वयंप्रभा, स्वयम्वरिता होकर उसकी राजेश्वरी हुई । .. अपने कर्मों के अनेक दुष्चक्रों को पार करता, विशाखनन्दी विजया की उत्तर श्रेणी में विद्याधरराज अश्वग्रीव होकर जन्मा । स्वयम्प्रभा पर वह चिरदिन से आसक्त था। किन्तु त्रिपृष्ठ वासुदेव ने उसे जीत लिया है : सुनकर, प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव क्रोध से वन्हिमान हो उठा। चतुरंग सैन्य लेकर आँधी की तरह, वह रथावर्त पर्वत पार कर, मगध पर चढ़ आया। त्रिखण्ड पृथ्वी में दुर्जेय त्रिपृष्ठ कुमार, अकेला, केवल अपना चक्र लेकर सन्मुख आ डटा। अश्वग्रीव के सैन्य उस मूर्तिमान प्रभंजन को देख स्तंभित हो रहे । ललकार कर त्रिपृष्ठ ने अश्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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