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________________ १५० गणतंत्री शाक्यों का कुलाभिमान और भी भयंकर है। कामलोलुप प्रसेनजित को कूटपूर्वक दासी-पुत्री ब्याह देना तो मैं समझ सकता हूँ। पर वासभ-खत्तिया के निर्दोष पुत्र और अपनी दासी-पुत्री से जन्मे अपने ही रक्तांश भागिनेय का ऐसा अपमान कि उसके पाद-स्पर्श से उनका संथागार अपावन हो गया ? और उसके जाने पर उसे धुलवाया गया ! क्या यही है शाक्यों की गणतांत्रिकता, जिस पर उन्हें भयंकर अभिमान है ? एक निर्दोष मानवी को पहले तो महानाम शाक्य ने अपनी पाशव लिप्सा की तृप्ति का साधन बनाया। और फिर उससे जन्मी एक और निर्दोष कुमारिका को उन्होंने अपने दुर्मत्त रक्ताभिमान और अहंकार की रक्षा तथा राजनीतिक षड़यंत्र का हथियार बनाया । क्या यही है इन गणतंत्रों में जनगण की स्वतंत्रता, उनके अधिकारों की रक्षा ? क्या यही है गण की एक बेटी का सम्मान ! सिवाय शासन-विधान के कुछ सतही स्वरूपों के, इन गणतंत्रों, और एकाधिकारी राजतंत्रों के बीच कोई मौलिक भेद मैं नहीं चीन्ह पा रहा हूँ। ___- ‘सत्ता और संपदा के इन भव्य दुर्गों की नींव एकाएक मेरे सामने खुलने लगी। - जैसे कोई घड़ी किया हुआ, लम्बा-चौड़ा चित्रपट खुल रहा हो । थल, जल, नदी और समुद्र-पथों का एक जटिल-कुंचित जाल जैसे किसी अदृश्य मछियारे ने आकाश और पृथ्वी के बीच फैला दिया। . . अनाथपिण्डक सुदत्त और मृगार जैसे आर्यावर्त के धन-कुबेरों के सौ-सौ सार्थ, चारों दिशाओं में जाते-आते देख रहा हूँ। - ये केवल जम्बूद्वीप में ही नहीं, ताम्रलिप्ति के मार्ग से बंग देश की खाड़ी, और भृगुकच्छ तथा शूरक से अरब-सागर को पार कर, सुदूर द्वीपों और देशान्तरों में जाकर संपदा का विस्तार कर रहे हैं। श्रावस्ती से प्रतिष्ठान तक का मार्ग माहिष्मती, उज्जयिनी, गोनर्द, विदिशा और कौशाम्बी होकर जाता है। श्रावस्ती से राजगृह का मार्ग हिमवान की तराई में होकर गया है । इस मार्ग में सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हस्तीग्राम, भण्डग्राम, वैशाली, पाटलीपुत्र और नालन्द पड़ते हैं । पूर्व से पश्चिम का मार्ग प्रायः नदी-यात्राओं से तय होता है। गंगा में सहजाती और यमुना में कौशाम्बी तक बड़ीबड़ी नावें और जलपोत चल रहे हैं । सार्थवाह विदेह हो कर गान्धार तक, और मगध होकर सौवीर तक, भरुकच्छ से ब्रह्मदेश तक, और दक्षिण होकर बाबुल तक, तथा चम्पा से महाचीन तक जाते हैं । मरुस्थलों में लोग रात को चलते हैं और पथ-प्रर्दशक नक्षत्रों के सहारे मार्ग निर्णय करते हैं । सुवर्ण भूमि से लेकर यवदीप तक, तथा दक्षिण में ताम्रपवीं तक सार्थों के आवागमन का तांता लगा हुआ है। . . अवन्तीनाथ चण्डप्रद्योत की उज्जयिनी समस्त जम्बूद्वीप का एक केन्द्रीय व्यापारिक राजनगर है। पश्चिमी समुद्र के पत्तनों से जो व्यापार उत्तरावर्त में होता है, वह सब उज्जयिनी के रास्ते ही होता है । पश्चिमी समुद्र के पत्तनों से अवन्ती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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