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________________ १४९ लिए पुष्करिणी के द्वार पर अहर्निश संगीन पहरा लगा रहता है। इसके जल से केवल राजतिलकोत्सव के समय कुलराजा का अभिषेक हो सकता है। कुल-पुत्रों के अतिरिक्त जन-सामान्य तो शायद इसकी झलक भी नहीं देख सकते । प्रवाही जल-तत्व का ऐसा बन्दी स्वरूप लोक में शायद ही अन्यत्र कहीं हो। यह जितना ही दुर्लभ हुआ, इसका आकर्षण लोक में उतना ही दुर्दान्त हो उठा। . . कोसलेन्द्र के दुर्वार पराक्रान्त सेनापति बन्धुल मल्ल की पत्नी मल्लिका असिधारा-सी तेजस्विनी और सुन्दर है । गर्भवती होने पर उसे दोहद पड़ा कि वह लिच्छवियों की मंगल-पुष्करिणी में स्नान करे । बन्धुल के लिए जगत में कुछ भी अलभ्य नहीं हो सकता । अकाट्य को काटने की धार उसकी तलवार में है । अपनी प्राणवल्लभा को वक्षारूढ़ कर घोड़ा दौड़ाता हुआ बन्धुल एक बड़ी भोर मंगल-पुष्करिणी पर आ पहुंचा । प्रहरी तो उसकी लहराती तलवार का तेज देखकर ही भाग खड़े हुए। प्रिया को लेकर वह भीतर गया । अपने वज्रभेदी खङ्ग के एक ही झटके से उसने पुष्करिणी की दोनों जालियाँ काट दीं। मल्लिका उसके भीतर उतर कर जी भर नहायी। और पलक मारते में अपनी रानी का दोहद पूरा कर, बन्धुल मल्ल हवाओं पर अश्वारोहण कर गया। वीरभोग्या वसुन्धरा के इस खतरनाक़ बेटे को मैं प्यार करता हूँ । वीर प्रसविनी मल्लिका के इस जोखिम भरे दोहद-स्नान का मैं अभिनन्दन करता हूँ।... · · ·पता चलते ही, लिच्छवि शूरमा पीछा करते हुए, बन्धुल पर टूट पड़े। बात की बात में भयंकर रक्तपात हो गया। पर बन्धल अपनी तलवार के कुछ ही बारों से, सैकड़ों नरमण्ड हवा में उछाल कर, बिजली की कौंध की तरह लिच्छवियों के हाथ से साफ निकल गया। - जल-तत्व को जो इस तरह अपनी सत्ता के फौलादों में बाँधेगा, उसे काटने बाला दूसरा फौलाद कहीं पैदा होगा ही। ये गणतंत्र अपने आप में कितने स्वतंत्र हैं, इनमें जनगण कितना स्वतंत्र है, इनके पारस्परिक संबंधों में स्वतंत्रता की कितनी प्रतिष्ठा है, उसका परिचय तो इस घटना से स्पष्ट मिल ही जाता है । जल और जलचर की भी दया पालने वाले, और पानी को भी छान कर पीने वाले निग्रंथी श्रावको के यहाँ स्वतंत्र जल-द्रव्य को ऐसे कठोर कारागार में बन्दी देख कर मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं है। और वह कुलीनों की महद्धिकता का दास होकर रह सकता है ? और उसकी अभिजात्य-रक्षा के लिये, गर्भवती माँ पर लिच्छवि तलवार उठ सकती है, और सैकड़ों निर्दोष सैनिकों की बलि चढ़ायी जा सकती है ? क्या पार्श्व के अनुगामी श्रमण भगवन्तों का समर्थन और आशीर्वाद, लिच्छवियों के इस कुत्सित कुलाभिमान को चुपचाप प्राप्त है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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