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________________ १४८ कक्ष कह लो । श्रावक के नित्य के आवश्यक षट्कर्मों से आगे वह धर्म जाता नहीं दीख रहा । अपने ही धर्म को विश्वधर्म के आसन पर स्थापित कर, अन्य धर्मियों को मानो वे अपना आश्रित मानते हैं। उन्हें आग्रह है कि उन्हीं का धर्म श्रेष्ठ है, अन्य सब पाखण्ड और मिथ्यात्व है। अनेकान्त की जयकारों का अन्त नहीं। पर भीतर एकान्त का हठ पल रहा है । आग्रह जहाँ है, वहाँ परिग्रह है ही। परिग्रह जहाँ है, वहाँ विग्रह है ही । धर्म में हो, कि शासन में हो, कि सम्पदा में हो, मुझे विग्रह से ऊपर नहीं दीख रही है वैशाली । परम परमेष्ठिन् अरिहन्त, सुवर्ण, रत्न, पाषाण की प्रतिमा में सदा को निश्चल प्रतिष्ठित हो गये दीख रहे हैं । वे मुझे लोक-जीवन में प्रवाहित नहीं दीख रहे । अनेकान्त, अहिंसा, अपरिग्रह केवल प्रवचन तक सीमित है। जीवन में इन स्वयम्भ सत्य-धर्मों का प्रकाश मुझे कहीं नहीं दीख रहा है । जहाँ उच्च कुलों का वंशाभिमान है, जहाँ अष्टकुलक ही सर्वोपरि गरिमा से मंडित हैं, जहाँ ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, कुलीन-अन्त्यज के भेद और अन्तर-विग्रह दबे-छुपे मौजूद हैं, जहाँ धरती माता की अपार संपदा कुछ राजन्यों और कुबेरों के कोषागारों में एकत्रित और संचित है, वहाँ अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह का, सिवाय मृत शब्दों के और क्या मूल्य रह जाता है ! धर्म में हो, कि शासन में हो, कि धन में हो, जब तक सबसे ऊपर हो रहने की वासना हममें बनी है, तब तक किसी भी स्वतंत्रता का क्या अर्थ रह जाता है। जिनेन्द्र ने वस्तु मात्र की स्वतंत्रता का उद्घोष किया है । उसी परम सत्य के आधार पर लोक में सच्ची स्वतंत्रता स्थापित हो सकती है। जो वस्तु मूलतः अपनी स्वयम् की है, वह जीवन में सर्व का स्वतंत्र उपभोग्य ही हो सकती है। उस पर वैयक्तिक अधिकार की मोहर लगाना ही तो परिग्रह है। और परिग्रह सारे पापों का मूल महापाप है। परिग्रह का ऐसा दुर्मत्त रूप जब तक लोक में उजागर है, तब तक अनेकान्त और अहिंसा की निरी तत्व-चर्चा से क्या लाभ है। __. . 'इस संदर्भ में वैशाली की जगत-विख्यात मंगल-पुष्करिणी का ख्याल आ रहा है । यह सर्वत्र दन्त-कथा की वस्तु बनी हुई है । वज्जिसंघ के अष्ट-कुलीनों को इस पर बड़ा गर्व है । मत्स्य देश के मर्मर पाषाणों से बने इसके घाट और सोपान स्वर्ग के कल्प-सरोवर की याद दिलाते हैं। इसके जल इतने पारदर्शी हैं, कि तल में पड़ी वस्तु भी ऊपर से साफ दीख जाती है। संपूर्ण पुष्करिणी एक सुदीर्घ प्राचीर से परिवेष्टित है। इसकी सतह पहले ताँबे की एक विशाल-चमचमाती जाली से आच्छादित है। और उसके ऊपर फौलाद की शलाका-जाली का प्रकाण्ड ढक्कन लगा हआ है। ताकि उसमें कोई पक्षी तक चंचु न मार सके । उसके भीतरी जलों को बड़े ही जतन से इतन' निर्मल और निर्बाध रक्खा जाता है कि कोई जलचर जीव भी उसमें जन्म ले ही नहीं सकता । और इस महार्घ, दुर्लभ जलराशि की रक्षा के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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