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की सच्ची स्वतंत्रता कैसे प्रकट हो सकती है ? अपने भुजबल और शस्त्रबल से पड़ोसी को सदा आतंकित रख कर जो स्वतंत्रता बनी है, वह कब तक टिकी रह सकती है। कुशीनारा और पावा के मल्ल भी अपने ही में विभाजित हैं । लोकमाता अचिरावती नदी का आँचल, सदा ही अपनी संतानों की परस्पर विग्रही कृपाणों से काँपता रहता है । बंधुल मल्ल जैसा अचिरा का अजेय विक्रान्त बेटा स्वयम् मल्लों की ईर्ष्या का ग्रास बना, और आखिर अपने ही स्वजनों की असह्य अवहेलना से आहत होकर स्वेच्छाचारी कोसलेन्द्र का सेनापति हो गया। बेशक इस शर्त पर कि मल्ल-गणतंत्र के विरुद्ध उसकी तलवार नहीं उठेगी। इसमें बन्धुल का गौरव अवश्य है। पर मल्ल अपने ही कुलावतंस के प्रताप से ईर्ष्या-द्विष्ट हो गये, यह एक कुरूप और कठोर सत्य है ।
लिच्छवियों के गणतंत्र की गौरव-गाथा तो समुद्रों को पार कर सुदूर पारस्य, मिस्र, महाचीन और यवन देशों तक के आकाशों में गूंज रही है। वैशाली के संथागार में उपस्थित होने के लिए जाने कितने ही दूर-देशान्तरों के यात्रियों ने दुर्गम पर्वत और दुस्तर समुद्र लाँघे हैं। उसके चौराहों और अन्तरायणों में, पृथ्वी की जाने कितनी ही जातियों के कन्धे टकराते हैं। उसके पण्यों में विश्व की दुर्लभतम वस्तु-संपदा बिकने को आती है। संसार के चुनिन्दा पंडितो और ज्ञान-धुरन्धरों का संगम उसकी ज्ञान-गोष्ठियों में होता है। उसके उपवनों और चैत्यों में विभिन्न धर्मों और मतसम्प्रदायों के उपदेष्टा तीर्थक मुक्त भाव से विचरते हैं। वे निर्विरोध अपने-अपने मतों का प्रवचन करते हैं।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जिनेश्वरी परम्परा का सूर्य लिच्छवियों की वैशाली में ही आज सर्वाधिक उद्योतमान है। उसके संथागार के शिखर पर आदि तीर्थंकर वृषभ देव के विश्व-धर्म की, ऋषभ के चिह्न से अंकित केशरिया ध्वजा, बड़े गौरव से फहरा रही है। उसकी छाया में संथागार के भीतर उसके गणनायक के सिंहासन की पीठिका में सारे ही प्रवर्तमान धर्मों के चिह्न समन्वित भाव से अंकित हैं । दुर्द्धर्ष तपस्वी, इन्द्रियजेता श्रमणों के विहार और प्रवचन से वैशाली के वन-कानन सदा ही प्रकाशित और आप्लावित होते रहते हैं। अनेकान्त और अहिंसा की कल्याणी धर्मवाणी आज भी वहाँ, दूर-दूर के मानव-कुलों को आकृष्ट करती है। अधिकांश लिच्छवि क्षत्रिय नित्य के आहार-विहार में भी श्रावक धर्म को आचरित करते हैं। उनकी महारानी-बेटियों ने भारत के पांच महाराज्यों में अरिहन्तों के जिनधर्म की प्रतिष्ठा और प्रस्थापना भी की है।
___पर ऐसा लगता है कि यहाँ भी धर्म मात्र जीवन का एक विभाग होकर रह गया है। भवन के कई कक्षों में, एक वह भी है। फिर चाहे उसे शिखर
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