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और मौसी पद्मावती, सुनो, भले ही पूर्वीय समुद्र की लहरें आज तुम्हारे कमल-रातुल चरणों में अठखेलियां कर रही हों। पर अंगराज दधिवाहन की चम्पा के सिन्धु-तोरण पर एक साथ समस्त आर्यावर्त के राजमण्डल की गृद्धदृष्टि लगी हुई है । सुनता हूँ, तुम्हारी बेटी और मेरी बहन शीलचंदना कपूरवर्तिका की तरह उज्ज्वल, सुगंधित और पवित्र है। पर मगध की नंगी तलवार उसके कुंवारे सीमन्त पर तुल रही है । काश, चम्पा के अतुल धनशाली निगंठोपासक श्रावक श्रेष्ठि, सारे संसार के रत्न-सुवर्ण से अपने कोषागार न भरते, तो चम्पा में अरिहन्तों का जिन-शासन चिरकाल जीवन्त रह सकता! उन्होंने धर्म की चिर प्रवाही धारा को ठोस स्वार्थ-शिलाओं से पाट कर, सारी पृथ्वी पर अपनी सार्थवाहयात्रा का सुदृढ़ पुल चुन दिया है ।
मौसी प्रभावती के राजनगर वीतिभय के पत्तनघाट पर सोलोमन की खदानों का सुवर्ण उतरता है। और माहिष्मती और उज्जयनी के नदी-मार्गों से, वह कौशाम्बी के यमुना तट को धन्य करता हुआ, चम्पा की सदानीरा के पानियों पर झलमलाता हा श्रावस्ती, काशी-कौशल, वैशाली तथा मल्लों और शाक्यों के सारे गणतंत्री गृहपतियों और राज-पुरुषों की धुरियों को हिलाता रहता है। और देख रहा हूँ, कि अन्ततः मगध के प्रचण्ड प्रतापी राजदण्ड के नीचे वह समर्पित हो जाता है। राजगृही के रत्न-सेट्ठियों के कोषागार में संचित होकर, वह समस्त आर्यावर्त के राज-मुकुट, और महारानियों की कटि-मेखलाएं गढ़ता है।
इन महाराज्यों के सर पर स्वतंत्र हवा की तरह बह रहे नौ गण-तंत्रों को देख रहा हूँ। शाक्य, भग्ग, बुलिय, कालाम, कोलिय, मल्ल, मौर्य, विदेह और लिच्छवियों को गर्व है कि वे किसी एकराट् राजा के दास नहीं। कि उनका हर नागरिक उनके राजतंत्र के चालक संथागार, में अपने छन्द (मतदान) द्वारा, शासन के हर मामले और निर्णय में अपना दखल रखता है। कोई सर्वसत्ताधीश राजा नहीं, किन्तु वे स्वयं अपने भाग्य के निर्णायक हैं। ये गणतंत्र साधारणत: अपनी सर्वसामान्य हित रक्षा से प्रेरित हो कर ही एकता के सूत्र में बँधे हुए हैं। राजेश्वरों को उनकी सात्विक स्वतंत्रता असह्य है : उससे इन्हें ईर्ष्या है। वैशाली के गणेश्वर की पाँच बेटियों का पाणिग्रहण करके मानो इन नृपतियों ने अपनी उस ईर्ष्या की जलन को किसी क़दर मिटाया है, और अपने नरपतित्व को तृप्त किया है।
• . पर देखता हूँ, इन गणतंत्रों में भी पारस्परिक विग्रह दबे-छुपे चलते ही रहते हैं। एक छोटे-से खेत या भू-खण्ड को लेकर भी इनके बीच चाहे जब तलवारें तन जाती हैं। मानुषिक राग-द्वेष जब तक हैं, तब तक स्वतंत्रता का क्या अर्थ रह जाता है ? व्यष्टि अपने भीतर जब तक अपनी कषायों की दास है, तब तक समष्टि
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