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________________ ૪૩ ने एक साथ, लिच्छवि कुल का मानभंजन और सम्मान किया । महारानी-मौसी बेलना के पद-नख पर वैशाली और मगध की सन्धि ठहरी हुई है । पर मगधेश्वर में सौन्दर्य - लिप्सा और साम्राज्य - लिप्सा की जो बराबरी की टक्कर है, उससे मेरी भोली मौसी अनभिज्ञ हैं । सामने फैले नक्शे की तरह जो यह घटना चक्र देख रहा हूँ, यह मेरी किसी तीसरी ही आँख का खेल है । बचपन से ही पाया है कि जब भी देश-काल में कुछ जानने की जिज्ञासा बहुत तीव्र हुई, तो मैं अवधि बाँध कर सहज ही उसका ज्ञान कर लेता हूँ । आज वह अवधि- ज्ञान का अर्न्तचक्षु अपलक खुला रह गया है, और मैं सहस्राब्दियों से इस क्षण तक के देश, काल, घटना और व्यक्तियों के अन्तस्तलों झाँक रहा हूँ । और उससे स्पष्ट देख रहा हूँ, कि मगधराज श्रेणिक का रक्त एक बार मासमुद्र आर्यावर्त पर अपनी साम्राज्य-पताका फहरायेगा । पर आज का लिप्साग्रस्त और मोहग्रस्त यह राजा, कहीं भीतर मृदु, अकपट, उदार और क्षमाशील है । इसके मार्दव और आर्जव से मैं आकृष्ट हूँ । अपनी मोह-रात्रि के छोर पर, उसे आत्मबात करता देख रहा हूँ । 'लेकिन मृत्यु में भी प्रतिक्रमणशील रहेगी उसकी चेतना । 'मागध, वर्द्धमान को तुम्हारी ज़रूरत है । 'देख रहा हूँ, मल्लों की कुशीनारा के उस पार काशी और कोसल का महाराज्य । तक्षशिला का स्नातक प्रसेनजित कोशल के सिंहासन पर बैठा है । उसकी राजधानी श्रावस्ती में सारे जम्बूद्वीप के राज-पथों, नदी-पथों और समुद्रपथों को जोड़ने वाला, धारा - संगम है । इसी से भरतखण्ड और उससे परे के समुद्रमार्गों से जुड़े ज्ञात-अज्ञात अनेक देशों और द्वीपों के सार्थ श्रावस्ती के पण्यों में उतरते हैं। इस तरह वर्तमान के तमाम गम्य विश्व की वस्तु-संपदा से श्रावस्ती के पण्य, श्रेष्ठि- महल और राजमहल भरे पड़े हैं । इसी के राज्य में रहता है वह महागृहपति श्रेष्ठ अनाथ - पिण्डक, जो अपनी सुवर्णराशि से कई राज्यों को ख़रीद सकता है । ऐसे विपुल वैभव संपन्न राज्य का स्वामी यह प्रसेनजित, निकम्मा, कामुक और कापुरुष है । पर फिर भी वर्तमान के तीर्थक और श्रमण उसे पुण्य - पुरुष कहते हैं । मल्ल-गण के असाधारण योद्धा युवा बन्धु मल्ल के बल और शस्त्र - कौशल का मल्लों ने उचित सम्मान न किया, तो वह स्वयम् ही अपने गण राज्य से निर्वासित हो गया । यह बन्धु मल्ल तक्षशिला में प्रसेनजित का मित्र और सहपाठी था । स्वदेश-त्याग के बाद जब वह इधर-उधर भटक रहा था, तभी प्रसेनजित ने उसे सम्मानपूर्वक अपने राज्य में आमंत्रित किया। फिर प्रसेनजित के अनुरोध पर उसने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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