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________________ १४४ कोसल का सेनापतित्व स्वीकार लिया । उसी प्रचण्ड योद्धा बन्धु मल्ल के बल पर यह कामान्ध और अकर्मण्य प्रसेनजित भी सम्राटत्व का सपना देख रहा है । श्रावस्ती की एक मालाकार - कन्या मल्लिका प्रसेनजित का मन हर कर, कोसल की पट्ट - महिषी बनी बैठी है । पर शूद्र कुल की यह सेवक - वर्गीय कन्या उच्चात्मा है । काम के इस केलि-सरोवर में भी वह पवित्र कमला-सी अलिप्त विराजित है । मनुष्य के बाह्य आचरण से ही पूरे मनुष्य का निर्णय संभव नहीं । विचित्र विरोधी वृत्तियों का समुच्चय होता है मनुष्य । पाप के पंक में भी जागृत उज्ज्वल आत्मा की चिन्तामणियाँ कहाँ-कहाँ लिपटी पड़ी हैं, सो कितने लोग देख पाते हैं । सम्यक् चारित्र्य आत्मिक वस्तु है, वह बाह्याचार से बाधित नहीं । सम्यक् चारित्र्यं आत्म शुद्धि का परिणाम ही हो सकता है। बाहरी प्रवृत्तियों में न झलकने पर भी वह ठीक समय आने पर आत्मा को अन्तर्मुहूर्त मात्र में मुक्ति का अनुभव करा देता है । यह मालाकार - कन्या मल्लिका ऐसी ही है । भव्यात्मा है यह । कोसलपति प्रसेनजित भी अपने आधिपत्य के शाक्य गणतंत्र की बेटी ब्याह कर, अपने राज्याभिमान को तुष्ट किया चाहते थे । मातहत शाक्य मने तो नहीं कर सके, पर उन्होंने चतुराई बरती। उन्होंने महानाम शाक्य की दासी - पुत्री वार्षभ-क्षत्रिया प्रसेनजित को ब्याह दी । शाक्य पुत्री में उन्होंने बड़े गौरव के साथ, राजपुत्र विडभ को उत्पन्न किया । विड्डभ एक बार मेहमान होकर, अपनी ननिहाल कपिलवस्तु गया। शाक्यों ने ऊपर से भानजे का सम्मान किया, पर उसके जाते ही, दासी पुत्रीय भागिनेय के स्पर्श से अपवित्र हो गये अपने संथागार को धुलवाया । विडूडभ का एक अंगरक्षक अपना बरछा संथागार में भूल आया था । वह लेने को वह वहाँ गया, तो पाया कि कुछ दासियाँ विड्डभ को गालियाँ देती हुई संथागार को धो रहीं थीं । विडूडभ पर रहस्य खुल गया कि वह शाक्यों की दासी पुत्री का बेटा है। दोतरफा अपमान की आग में जलते हुए एक ओर तो वह अपने काम-लिप्सु जनक का प्राणद्रोही हो उठा, तो दूसरी ओर उसने कपिलवस्तुको निःशाक्य करने की सत्यानाशी प्रतिज्ञा की है । अपने ओज से दासियों की फसल उगा कर, ये गणतंत्री और राजा समान रूप से उन्हें अपने अहंकारों और सत्तामद का पाँसा बनाये हुए हैं। ये अपनी माँओं और प्रियाओं को गोटें बना कर, अपनी राजनीति की शतरंजें खेल रहे हैं । 'भुवनमोहन वत्सराज उदयन पर अनुरक्त थी, गान्धारराज- नन्दिनी कलिंगसेना । पर रूप- ज्वाला के लाचार पतिंगे प्रसेनजित को यह असह्य हो गया । उस गान्धारी के लावण्य से हिन्दूकुश के अंधियारे दर्रे और पश्चिमी समुद्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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