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________________ ब्रह्मज्ञान को उनमें मूर्तिमान देखा । क्योंकि महाश्रमण पार्श्व ने सम्यक् दर्शन और सम्यक ज्ञान को प्रतिपल के जीवनाचरण में जीवन्त किया था। सो ब्रह्मर्षियों ने उन्हीं के स्वर में स्वर मिला कर ‘मा हिंस्या :' का मन्त्रोच्चार किया। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परषांन समाचरेत्' का मंत्र-दर्शन प्रजा को देकर, उन्होंने प्राणि मात्र के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। __पर ढाईसौ वर्ष बीते न बीते कि तीर्थकर पार्श्व की वह कैवल्य-प्रभा फिर अन्तर्धान हो गई । आज फिर मनुज पर दनुज़ की विजय-भेरी बज रही है। पश्चिमांचल के आर्य ब्राह्मण फिर उद्दण्ड हो उठे हैं। पार्श्व की कैवल्य-ज्योति के अस्तप्राय आलोक की शेष प्रभा केवल इस विपुलाचल के शिखरों पर स्तंभित होकर रह गई है। और लोकांचल में उनका चातुर्याम धर्म-मार्ग कुछ राजकुलों और श्रेष्ठि श्रावकों का मृत और पालतू श्रावकाचार होकर रह गया है। उसमें प्राणि मात्र के प्रति आत्मभाव का जीवन्त संवेदन संचरित नहीं। उनके चैत्यों की रत्न-प्रतिमाओं में तीर्थकर उनके वैभव के बन्दी हो कर, मात्र उनकी जड़ चैत्य-पूजा के उपकरण हो गये हैं। अहिंसा और अपरिग्रह के तथाकथित धर्म-पालक मगध, अवन्ती और चम्पा के धनकुबेर श्रेष्ठियों के तहखानों में लोक का तमाम सुवर्ण-रत्न संग्रहीत है । कोटिकोटि श्रमिक प्रजा इन राजपुरुषों और श्रेष्ठियों द्वारा अपहृत लोक-संपदा की क्रीत दास होकर, मजबूरी का जीवन बिता रही है । यह पार्श्व का धर्म-साम्राज्य नहीं, कुलीन ब्राह्मण-क्षत्रिय और वणिकों का काम-साम्राज्य आज के समस्त आर्यावर्त में व्याप्त है। . . 'एक विचित्र कौतुहल से देख रहा हूँ, कि मेरे ही मातृकुल का रक्त, इस काम-साम्राज्य के सिंहासनों पर आसीन है। मेरी ही मौसियाँ, भारत के तमाम महाराज्यों के अन्तःपुरों में महारानियाँ बनी बैठी हैं । विश्व-विश्रुति वैशाली गणतंत्र के गणपति मेरे मातामह चेटकराज की पाँच पुत्रियाँ, लोक-लक्ष्मी के पावन सिंहासन को अधिकृत किये हैं । आचड़ आर्यावर्त में अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने के महत्वकांक्षी महाराज श्रेणिक बिम्बिसार के हृदय-कमल पर बैठी हैं, मेरी परम रूपसी मौसी चेलना । अवन्तिनाथ का वध करके, उनके सिंहासन को हथिया लेने वाले, उज्यनीपति चण्डप्रद्योत की पट्टमहिषी बनी हैं, मेरी मौसी शिवादेवी । समकालीन विश्व की अप्रतिम विलास-नगरी कौशाम्बी के अधीश्वर महाराज शतानीक के अंक में आसीन हैं, मेरी मौसी मृगावती । उन्हीं की कोख से जन्मा, प्रणय और पराक्रम के सहस्र-रजनी-चरित्रों का नायक, वत्सराज उदयन मेरा मौसेरा भाई है। भारत के पश्चिमी तोरण पर, सिन्धु सौवीर के महाराज उदायन के वाम कक्ष में सुशोभित हैं, मेरी मौसी प्रभावती । भारत के पूर्वीय समुद्र-तोरण चम्पा में, अंगराज दधिवाहन की महारानी होकर, विराजित हैं मौसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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