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रहा । ज्ञान और भाव की अनेक रूपिणी वाणी आलोकित पुरुष ने बारम्बार उच्चरित की ।
अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व इसी आर्यावर्त के विस्तता तट पर ऋग्वेद के कविऋषियों ने प्रकृति और पदार्थ के अनन्त - विराट स्वरूप का साक्षात्कार किया । आनन्द के महाभाव में तन्मय होकर उन्होंने, एक बारगी ही रूपी और रूपातीत सौन्दर्य की संयुक्ति का गान अपनी ऋचाओं में किया । प्रकृति और सृष्टि की समस्त कामनाकुल लीला में उन्होंने अपने सामगानों द्वारा, महाभाव का अमृत सिचित किया । पर मन और इन्द्रियों के अलिन्दों में उतर कर वह धारा अखण्ड न रह सकी । क्षुद्र कामना से खंडित होकर, वह मर्त्य माटी का विषय बन गई । तब कृष्ण यजुर्वेद के मंत्र उच्चरित हुए । 'अग्निमीले पुरोहितं' के गायक, स्वयम् अग्नि न रह सके, मात्र उसके विषय लोलुप याजक हो रहे । आनन्द के आत्महोता यज्ञ, अमृत स्रवा नहीं रहे । उनमें से अधम इन्द्रिय- लिप्सा और दैहिक बभुक्षा का पशु हुंकारने लगा | मानव के भीतर का लोलुप पशु ही सर्वोपरि हो उठा : यज्ञों के पशुपतिनाथ प्रजापति, स्वयम् पशुभक्षी होते दिखाई पड़े । सरस्वती के अंचल में माँ का दूध, अपनी ही सन्ततियों के आत्मभक्षी रुधिर से आक्रन्द कर उठा । यज्ञपुरुष लुप्त हो गये । अग्निहोत्र भ्रष्ट हो गये । परब्रह्म के महाभाव गायक, ऋग्वेद के ऋषि-पुत्र, ब्रह्महंता होकर सर्वभक्षी और सर्वशोषक भोग की संस्कृति का जयगान करने लगे ।
पर भीतर का स्वभाव से ही ऊर्ध्वचेता पुरुष अन्तिम रूप से सो कैसे मर सकता था । वह फिर जागा : वह फिर आत्म-भावित हुआ । और गंगा-यमुना के मर्कत-प्रच्छाय नैमिषारण्य में आर्य ऋषि फिर से आत्म-साक्षात्कार की गहन समाधियों में ज्योतिर्मान हुए । परात्पर परब्रह्म की द्रष्टा पराविद्या का फिर से आविष्कार हुआ । उपनिषत् के आत्म-ज्ञानी अन्तर्द्रष्टाओं ने, यज्ञ को पाशव लिप्सा से मुक्त कर, आत्मकाम की सिद्धि का प्रतीक बनाया । पर दुर्दान्त पशु सहज ही दमित न हो सका । क्षुधा और काम की कराल डाढ़ों में फिर भी, हिंसा की तांडवी जिह्वा लपलपाती रही । देवाहुति, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य के ज्ञान-सूर्य को बराबर ही पाशव यज्ञों का कालधूम्र प्रच्छन्न करता रहा ।
तब शतसहस्र जिह्वाओं में लपलपाती यज्ञ की उस सर्वग्रासी ज्वाला के शिखर पर उतरे महाश्रमण पार्श्वनाथ । कमठ की अहंग्रस्त तपाग्नि के काष्ठ में से जीवित नाग-युगल प्रकट करके उन्होंने समस्त जम्बूद्वीप को अपने कैवल्य-सूर्य से भास्वर कर दिया । सत्य, अहिंसा, अचौर्य और अपरिग्रह का प्रकृत चतुर्याम धर्म उन्होंने उद्घाटित किया । तमाम सृष्टि के जड़-जंगम प्राणियों ने तीर्थंकर के सर्व-वल्लभ श्रीचरणों में अभय शरण प्राप्त की । उपनिषत् के ऋषियों ने अपने आत्म - साक्षित
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