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________________ युगावतार का सिंहावलोकन आज की सुवर्ण उषा में अचानक अपना कोई लोकोत्तर रूप सामने खड़ा देखा।' : 'जैसे हिमवान की किसी अन्तरित चुड़ा से उतर कर, गंगा की ऊर्जस्वला लहरों पर चल रहा हूँ। और जाने कब सहसा ही अपने को विपुलाचल के सूर्यमण्डलित शिखर पर खड़े पाया। कमर पर दोनों हाथ धरे, लोकाकार दण्डायमान हूँ : और मेरी आँखों के सामने आर्यावर्त की समुद्र-कुन्तला पृथ्वी, निरावरण कुमारिका-सी निवेदित है। सहस्राब्दियों के आरपार मन-पुत्रों के नख-क्षतों से विदीर्ण उसका वक्षस्थल, एक मानचित्र की तरह मेरे समक्ष खुल रहा है। पौरुष, सजन और ज्ञान की असंख्य शलाकाओं ने युगान्तरों में, उस पर मनमाने नक्शे बनाये । आज फिर एक नक्शा सामने हैं। पर उसके नीचे, उसका सतीत्व, मुझे आज भी अजित, और अनक्षत दीख रहा है । कि चाहूँ तो मैं इस आद्या प्रकृति का अब तक अनावरित कोई नया ही आंचल खसकाऊं। इसके भीतर अपने परम काम की शलाका से अपनी पूर्णकाम्या को रचं, आकृत करूँ। - - याद आ रहा है, गणनातीत काल में, मनुष्य के किसी आदि प्रात में आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने, निरे कामनाजीवी, मरण-धर्मा मानव-युगलों को, भोग-युग की अन्ध कारा से मुक्त कर के, आत्मज्ञानी और आत्म-स्रष्टा पौरुष की दीक्षा प्रदान की थी। प्रकृति के मोहपाश से स्वयम् मुक्त होकर, उसके विजेता पुरुष का मोक्ष-मार्ग उन्होंने प्रशस्त किया था। इन्द्रियजय और मनोजय करके, प्रकृति का पूर्णकाम भोक्ता होने की अतिकाम कला उन्होंने मनुष्य को सिखाई थी । धर्म, कर्म, काम और मोक्ष को उन्होंने सम्वादी किया था । कालचक्र के अनेक विप्लवों और मन्वन्तरों में उनका वह कर्मयोगी विधान, बारबार प्रलय की लहरों में लीन हो कर भी, नव-नूतन स्वरूपों में फिर-फिर प्रकट होता रहा । हर बार कोई नये तीर्थकर आये और काम और कामातीत मुक्ति के समन्वय-स्वर साधे । उत्पाद और व्यय, उत्थान और पतन के इस अनिवार्य द्रव्य-परिणमन में, ध्रुव सत्ता का सूर्य बार-बार ओझल होकर भी, फिर-फिर मनुष्य के ऊर्ब चेतना-शीर्ष पर उदय होता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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