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जगा रही थीं। कई देशों के मिले-जुले फुललों की सुगन्धों में विचित्र पानियों का सम्वेदन था, अनजान फूल-घाटियों की यादें जाग रही थीं। मालती और बन्धक के पुष्प-हारों की बहार थी। रत्निम झूमरों के सौम्य आलोक में, अलग-अलग यूथों में बैठे अभिजात युवकों की पान-गोष्ठियाँ जम रही थीं। उनमें सभी प्रमुख जनपदों के कई राजपुत्र थे, कुलपुत्र थे, सामन्त और श्रेष्ठिपुत्र थे। उनकी महद्धिक वेश-भूषाओं का वैचित्र्य देखने लायक़ था । सब की अपनी विशेषता। ,
मगध, कौशाम्बी और अवन्ती के युवकों का शृंगार अलग ही दीखता था। उनके किरीट-कुण्डल-केयूरों की मणि-प्रभा की अपनी एक छटा थी। मीनाकारी की झारियों से बिल्लौरी चषकों में सुगंधित मदिराएँ ढल रही थीं। और उनकी आंखों के खुमार, और ओठों पर ताम्बूल के रचाव में, एक अजीब मादक सुरावट थी ।
मामा लोगों ने अनेकों से मेरा परिचय कराया। मेरे सादे केशरिया उत्तरीय और निर्बन्धन कुन्तलों को वे हेरते रह जाते। उनके प्रश्नों के उत्तर में, मैं मौन मुस्कुरा कर रह जाता। उनके वाणी-विलास और चतुर संलापों को मैं आँखों से सराहता, या कह देता : 'बहुत अच्छा !' उनके अभिजात वातावरण में, मैं कहीं अट नहीं पा रहा था। वे फिर अपने सखामों में व्यस्त हो जाते : मैं अव्यस्त भाव से उनके संलापों का रस लेता रहता।
जान पड़ता है, मामा लोग वारुणी-प्रेमी नहीं हैं। उनकी आंखें स्वच्छ सरसियोंसी निर्मल हैं। और संयम की एक सहज सीमा-रेखा से वे मंडित हैं। चेटकराज के पुत्रों में पापित्य श्रमणों और श्रावकों की मर्यादा झलकती थी। - वैशाली के लिच्छवि-पुत्रों के समुदाय में मेरा विशेष स्वागत हुआ। वे अलग ही दीखते थे। उनके साथ कुछ शाक्य-पुत्र भी जमे हुए थे। मक्ता लड़ियों के साथ मालतीमालाओं से बंधे उनके केशपाश में विरल नीलम या हीरे चमक रहे थे। उनकी आँखों में भी सान्ध्य-सुरा के लाल कुमुद खिले हुए थे। सबने मुझे बहुत प्यार से अपनाया, गले लगाया, निहोरा किया कि ऐसे खोया न रहूँ, वैशाली आऊँ, विशाला का लोक-विश्रुत राजकुमार हैं तो उस अलका-नगरी के रथों, वातायनों और रंगशालाओं में विहार करूं। वहां के संथागार में मेरी आवाज़ गूंजे। वैशाली की विश्व-विख्यात विलास-सन्ध्याएं देखू, जहाँ नित्य उत्सव चल रहा है।
· · ·और यह क्या कि मदिरा के चषक को भी प्रणाम करके सामने रख लिया है मैंने, और उसमें अपना प्रतिबिम्ब देख कर ही मुग्ध हूँ। एक ने गलबांहीं डाल कर कहा : 'पियो वर्द्धमान, फिर जाने कब मिलोगे?' मैंने ईषत् मुस्कराकर कहा: "पिये हए है।' 'अरे कब, कहाँ ? तो कुछ और सही ! हमारा साथ भी तो
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