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देना होगा ।' मैंने कहा: 'बन्धु, जाने कब से पिये हुए हूँ, पता नहीं । जान पड़ता है पी कर ही जन्मा । और तुम सबकी आँखों का नशा बना हुआ हूँ। तो साथ ही तो हूँ, और निरन्तर पी रहा हूँ ।' सब खिलखिला पड़े, खूब ठहाका मार कर । एक शाक्य - पुत्र बोला : 'कुमार वर्द्धमान निरे ब्राह्मण लगते हैं, क्षत्रियों के बीच । कोई महाब्राह्मण !' ब्राह्मणों के प्रति प्रबल तिरस्कार और व्यंग्य से भरा, शाक्यों का प्रचण्ड वंशाभिमान बोल रहा था। मैंने कहा : 'तथास्तु । आपका अभिनंदन मुझे शिरोधार्य है । जनक विदेह के वंशज को आपने पहचाना, आभारी हूँ । ब्रह्मपुरुष की बाहुओं में क्षत्रिय अपनी जगह पर है। सत्य समय पर प्रकट होगा ।' शाक्य का अभिमान विदीर्ण हो गया । बोला : 'शीर्ष पर बैठा है क्षत्रिय ! ब्राह्मण उसके पैरों में याचक है । वे हमारे दासी पुत्र होकर रह गये । लिच्छवि हो कर, उन्हें सिर पर चढ़ाओगे, वर्द्धमान ? धर्म के ठेकेदार, इन धर्म के हत्यारों को ? ' 'ब्राह्मण या क्षत्रिय, मेरे मन कुलजात नहीं, कर्मजात हैं, चेतनाजात हैं, शाक्य ! और एक ही व्यक्तित्व में ये दोनों समन्वित हो जायें, तो अचम्भा क्या ? मैं इनमें से कोई नहीं, या फिर दोनों हूँ ।' 'साधु, साधु, वर्द्धमान !' मामाओं के साथ कुछ लिच्छवि-पुत्रों ने एक स्वर में अभ्यर्थना की। शाक्यं निरुत्तर हो गया, पर उसकी भौहों का मान ज़रा भी नहीं गला ।
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'अभिजात हो, आर्य वर्द्धमान । लिच्छवियों के कुल सूर्य हो। हमें तुम पर गर्व है ।' : एक लिच्छवि गद्गद् कण्ठ से बोल उठा । 'अभिजात वह, जिसमें आत्मा का ऐश्वर्य प्रकट हो । लिच्छवि, कुल से नहीं, अन्तर के वैभव से अभिजात हो, यही मेरा अभीष्ट है ।' सिंहभद्र मामा ने उमड़ कर चुपचाप मुझे अपने से सटा लिया । * शाक्य - पुत्र उठकर अन्यत्र जाते दिखाई पड़े ।
लिच्छवि कुछ देर तो तत्व चर्चा में बिलसते रहे। फिर सौन्दर्य-वार्ता चल पड़ी । सौन्दर्य के लिए उनकी खोज और लगन जगत्- विख्यात है । और जाने कब वैशाली की नगर-वधू आम्रपाली में वे डूबने-उतराने लगे। उसके एकएक अंग-प्रत्यंग, देह-सौष्ठव, अंग-भंगिमा, भाव-भंगिमा, उसके श्रृंगार और विलक्षण केश-कलापों की वे बारीक चित्रकारी-सी करने लगे । एक ने मुझे लक्ष्य कर कहा 'आर्य वर्द्धमान, एक बार आम्रपाली को देखने के लिए ही वैशाली आओ । हमारी वैशाली की सौन्दर्य - लक्ष्मी है, अम्बा ! वह आर्यावर्त के रमणीकुल की दीपशिखा है । तुम्हें पा कर, धन्य हो उठेगी पाली ! पुरुषोत्तम को पहचानने की दृष्टि उसके पास है !'
'आप अम्बा से कहें, कि महावीर वर्द्धमान उन्हें प्रणाम करता है । वे कभी याद करेंगी तो आऊँगा । वे वैशाली का कौमार्य हैं, मेरे मन । लिच्छवियों की विलासिता, विशाला की सौन्दर्य-लक्ष्मी को कलंकित नहीं कर सकती। वे हमारे
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