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किनारे से, और उसकी विभिन्न पण्य-वीथियों में घूम कर भी देखा है । वस्तुसामग्री यहाँ राशियों में चहुँ ओर फैली है । और स्त्री-पुरुषों का नानारंगी प्रवाह, उनमें उलझा, खोया, भटका, चौंधियाया-सा फेरी दे रहा है । जो ख़रीद पाने में असमर्थ हैं, उनकी आँखों की कातर प्यास देखी है । जो मुँह माँगे दामों पर क्रय कर के वस्तुओं का उपभोग कर रहे हैं, उनके चेहरों पर भी तृप्ति नहीं दीखी । वहाँ थकान है, आर्त्तता है, अवसाद है । वस्तुओं का अन्त नहीं, और भोक्ताओं की तृष्णा का भी पार नहीं । बहुमूल्य मणि- माणिक्यों, सुगन्धों, मदिराओं, महद्धक परिधानों में डूब कर भी, उनके चेहरों पर अतृप्ति है, आनन्द की उत्फुल्लता नहीं । लगता है, जैसे पा कर भी, भोग कर भी, वस्तुओं, से ये बिछुड़े ही रह गये हैं । परस्पर मिल कर भी, आमोद-प्रमोदों में तल्लीन हो कर भी, ये कितने अकेले हैं ? प्यासे हैं । वस्तु के मालिक होकर भी, ये उससे विरहित हैं। मेले में आकर भी मिलन से वंचित हैं ।
• मुझे लगता रहा कि वस्तुएं जहाँ हैं, वहाँ रह कर, मानो सब की सब मेरी हैं । उठा कर लेने और अधिकार करने की ज़रूरत ही नहीं महेसूस होती । और घूमता हूँ तो विविध रंगी इन हजारों नर-नारियों में, अपने को व्याप्त अनुभव करता हूँ । अकेला होकर भी, अलग तो कहीं से नहीं रह गया हूँ । सब को एकत्र देख कर, एक विचित्र भरा-भरापन अनुभव होता है ।
वैशाली से मेरे कई मामा लोग आये हैं । एक तीसरे पहर सिंहभद्र और अकम्पन मामा मुझसे मिलने मेरे डेरे पर आये । मुझे देखते ही लिपट कर मिले । भर-भर आये। आर्द्र आँखों से कुछ देर चुप रह कर, मुझे देखते ही रह गये । मैं निश्चल ही रह सका । उनके वात्सल्य को समझ रहा था। वे सम्भ्रमित से थे, कि मैं उनका रक्तांश, इतना दूर और अनपहचाना सा क्यों लग रहा हूँ। अजनवी । उलहना देने लगे कि इतना दुर्लभ क्यों हूँ, कि बार-बार बुलाने पर भी कभी नहीं गया वैशाली। कुछ योजनों का अन्तर भी लाँघने में न आया, न
मेरे न उनके । मैं चुपचाप मुस्कुराता रहा । फिर कहा, कि ठीक मुहूर्त आने पर ही तो मिलन होता है । 'वैशाली के वैभव, प्रताप, शौर्य और गणतंत्र की गौरव-गाथा वे सुनाते रहे। मैं रुचिपूर्वक सुनता रहा। नहीं था। पूरी विश्व-वार्ता के संदर्भ थे उन बातों में। को सुना। सारे आर्यावर्त को सुना ।
आग्रहपूर्वक वे मुझे उत्सव - शाला में ले गये । आमोद-विहार का समय था साँझ जुही के फूलों-सी खिल आयी थी । अन्तरित प्रकोष्ठों में से, संगीत की बहुत कोमल रागिनियां बह रही थीं। नृत्यों की महीन झंकारें हवा में कसक
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कौतुक - कौतूहल भी कम अपने समकालीन विश्व
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