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मेरे पुरुष ने अद्यावधि प्रकृति को अपने आलिंगन में समर्पित पाया है। इस तरह मोह-माया के पाश टूटे हैं, और मुक्त स्वाधीन आत्म की अनुभूति होने लगी है। अपने स्वयम् के समीपतर आया हूँ, और सर्व सुलभ लगने लगा है। विरह का विषाद टूटा है, और सर्वत्र सब के साथ मिलन की राह निर्बाध हुई है।'
__ 'तुम सर्वजयी और सर्वस्व हुए बेटा, तो त्रिशला की कोख कृतार्थ हुई। सब को पाया तुमने, तो उनके प्रति अपने को दोगे नहीं ? जगत तुम्हारे आत्मदान की प्रतीक्षा में है।' ___ 'पूर्ण स्वयम हो लँ, तो समर्पण आप ही मुझ में से बहेगा। आज भी जो चाहे, जैसे चाहे मुझे ले, अपने में बन्द तो कहीं से भी नहीं हूँ।' ___पिछली चैत्र शुक्ला तेरस को तुम सत्ताईस बरस के हो गये, बेटा ! आर्यावर्त की जाने कौन कुमारी, तुम्हारी राह में आँखें बिछाये बैठी है। क्या उन आंखों का मान नहीं रक्खोगे ?'
'हो सके तो सभी की आँखों में बसना चाहता हूँ मां, और सारी आंखों को अपनी आँखों में बसा लेना चाहता हूँ।'
'तो विवाह करो वर्द्धन्, किसी एक का वरण करो, और सब के प्रजापति, शरणागत-वत्सल पिता होकर रहो। यही भावी राजा के योग्य बात है।'
"विवाह करके किसी विशेष का वहन करूँ, तो लगता है, कि सर्ववाह होना संभव न होगा। और अपने राज्य की सीमा अब मुझे नहीं दीख रही है । मुझे तो त्रिलोक और त्रिकाल के प्राणि मात्र अपनी प्रजा लगते हैं, तो मैं क्या करूं! भूगोल और इतिहास का राज्य मेरा अभीष्ट नहीं। वह मुझे रास नहीं आयेगा, मुझे कम पड़ेगा, माँ।'
त्रिशला के गर्भ में जैसे एक और अचीन्ही प्रसव-वेदना सी होने लगी। और इस जाये की इयत्ता को पहचानना और भी दुष्कर और असह्य लगा। क्षणक चुप रह कर, महादेवी विनती-सी कर उठी :
'तुम्हें समझने की कोशिश में रंच भी कमी नहीं रक्खी है। जो बुद्धि में नहीं आता, उसे मेरी कोख समझा देती है। फिर भी जाने क्यों, जी चाहता है कि. . .' राजमाता का स्वर डूब चला ।
मैंने देखा, मां दूर सोनाली पार के भोमनगर की भवन-अटाओं में आँखें गड़ाये हैं। उनकी वे उन्मीलित बरौनियाँ भींग-सी आई हैं।
'क्या जी चाहता है, माँ ! जगत का मान होने से पहले, तुम्हारा मान होना चाहता हूँ।'
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