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________________ ११९ 'वह भाग्य मुझे अपना नहीं दीखता · · !' मां की मर्म-व्यथा को समझ रहा था। ___'बोलो, क्या चाहती हो, मां ? तुम्हारी हर चाह पूरी करूंगा।' तेरे आवास-खण्ड में आर्यावर्त की श्रेष्ठ सुन्दरियां, तेरी एक निगाह को तरस गई। क्या उनमें से एक भी तेरे चरणों तक पहुँचने के योग्य न हो सकी ?' मुझमें एक अजीब मुक्ति की हिलोर-सी आई। मैं लीला-चंचल हो उठा। 'अरे बस, इतनी-सी बात मां ? वे सभी तो मेरी बरोनियों में झूले डाल कर झूल रही हैं। मैंने तो किसी को रोका नहीं । और चरणों तक ही क्या, वे तो मेरी चूड़ा पर अधिकार जमाये बैठी हैं। अवन्ती की मादिनी मेरे कुन्तलों के संपलियों से मनमाना खेलती है। अपनी तो एक साँस भी वहाँ मुक्त नहीं। रोम-रोम अपना निर्बाध छोड़ दिया मैंने, कि वे बालाएँ उसमें जी चाहा खेलें। जी चाही क्रीड़ा करें। और क्या करूँ, तुम्ही बताओ?' 'अपनाव की भी एक दृष्टि होती है कि नहीं! किसी को भी चुन नहीं सके तुम, कोई तुम्हारी अपनी होने लायक न लगी ?" - 'अरे मां, सो तो सभी मुझे नितान्त अपनी लगीं। परायी तो एक भी नहीं लगी। अब तुम्हीं सोचो, एक को अपना कर, औरों को परायी मा. तो उन्हें कैसा लगेगा? उनका जी दुखेगा कि नहीं ?' ___'वह तो संसार की होती रीत है, लालू ! अपना-पराया तो रहता ही या है। जिसका जहाँ ऋणानुबन्ध होगा, वहीं तो वह जायेगी।' 'संसार की रीत से तो महावीर कभी चल नहीं पाया मां । और मेरी रीत में अपने-पराये का भेद मेरे हाथ न आया तो क्या करूं ? और सारे ऋणानुबन्धों को तोड़ कर, मैं उन्हें धनानुबन्ध करने आया हूँ। ताकि विरह-मिलन का पीड़क दुश्चक्र टूटे । जो कि संसार है।' 'वे सब निराश लौटेंगी, तो क्या उन्हें पीड़ा नहीं होगी? इस मोहभंग से उनकी व्यथा बढ़ेगी ही , और ऋणानुबन्ध का अन्त नहीं , वृद्धि ही होगी।' ___'वे निराश क्यों हों, और लौटें भी क्यों, माँ ? मैंने तो उन्हें अस्वीकारा नहीं, कि वे विरहित होकर जायें ।' 'तो क्या सब को स्वीकार लिया है, लालू ?' माँ के मुख पर बरबस मुस्कान फूट आयी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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