________________
११६
अनेक ग्राम्य और नागरिक वात्रिों के तुमुल कोलाहल और हर्ष-ध्वनियों के बीच सहस्रों लोक-जनों का प्रवाह मेले की ओर बढ़ रहा था। पद-यात्रा करते नर-नारियों की नानारंगी नूतन वेश-भूषा, उनकी बैलगाड़ियों की घंटिकाध्वनियाँ, रथों और इक्कों के चित्र-विचित्र चंदोवों और पर्दो का रंग-वैचित्र्य, विविध प्रतीकों से अंकित केशरिया, लाल, श्वेत पताकाएँ, गीतगान और लोकवाद्यों की समवेत-ध्वनियाँ : लोक-चेतना के आनन्द और सौन्दर्य का यह मूर्त स्वरूप पहली बार देखा। अब तक प्रकृति के विराटों और अनन्तों में यात्रा की है । दुर्गम ऊँचाइयों पर सम्मोहित की तरह आरोहण किया है। गहराइयों के अतनों तक पहुँचने की संवासना से उद्वेलित हुआ हूँ। समग्र और निखिल में एकतान होकर विचरण किया है। बस्तियों के किनारों से ही, उनकी सघनता
और विविधता का स्पर्श पाकर प्रफुल्लित होता रहा हूँ। दूरागत दीयों से आलोकित लोकालयों की घरेलू ऊष्मा कई बार मेरे प्राण के तटों को व्याकुल कर गई है। पर जनगण के सामुदायिक प्रवाह को आज पहली बार साक्षात् किया। उनकी संयुक्त प्राणधारा के आनन्दोत्सव से पहली बार मेरा हृदय रोमांचित हुआ। पुलकावलियां सजल हो आई। लगा कि जनगण की भी अपनी एक संयुक्त आत्मा है। लोक के सामूहिक चैतन्य का भी अपना एक देवता है। अनवरत जन-प्रवाह के उन समवेत वाजिंत्रों, गीत-गानों, हुलु-ध्वनियों के निरन्तर संघात 'से, मेरा हृदय उमड़ आया। आँखों से एक विचित्र आनन्द का अश्रुपात होने लगा। · ·इस क्षण इन सब के समन्वित प्रवाह में होकर भी, क्यों अपने को इनसे बिछुड़ा , एकाकी अनुभव कर रहा हूँ ? आज तक तट पर रहने के अविचल साक्षी-भाव में अपनी उत्तुंग अद्वितीयता का अहसास होता रहा है। पर आज मेरी चेतना की कैलास-चूड़ा, गल कर लोक-जीवन की इस महाधारा के साथ तन्मय होने को व्याकुल हो उठी है ।
जाने कितनी दूर तक माँ और मैं अपने में लीन द्वीपों-से ही यात्रा करते रहे । एकाएक माँ के इंगित पर सारथि ने रथ को यात्रा-भीड़ से निकाल कर, सोनाली नदी के एकान्तवर्ती तट-मार्ग पर ले लिया। सहसा ही वे बोली :
'कैसा लग रहा है, वर्द्धमान ?'
'बहुत अच्छा । ऐसा तो पहले कभी लगा नहीं । एकाएक जैसे सब का हो गया हूँ।'
'सुनती हूँ महाविजनों और दुर्गमों में तेरी यात्राएँ चल रही हैं। मन में आया कि एक बार तुझे लोकालय भी दिखाऊँ । प्रजापति होकर जन्मा है, तो अपनी प्रजाओं से यों दूर कब तक रहेगा?'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org