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पिप्पली-कानन के मेले में
कई दिनों से पिप्पली-कानन के मेले में जाने की तैयारियां राजद्वार पर चल रही थीं। प्राय: बड़ी भोर ही अन्न-धान्य, सामान-असबाब और डेरे-तम्बुओं की बैलगाड़ियाँ लदती रहती थीं। कूच की हाँके सुनाई पड़ती थीं। वज्जियों की कुलदेवी अम्बा का कोई मन्दिर पिप्पली-कानन के सीमान्त पर है। उसी के वार्षिक पूजा-पर्व के उपलक्ष्य में शरदोत्सव के रूप में यह मेला लगता था । शरद पूर्णिमा से कार्तिकी पूर्णिमा तक। __ एक दिन सहसा ही महादेवी का आदेश मिला कि उनके साथ मुझे भी पिप्पली-कानन के मेले में जाना है। अच्छा ही लगा । यात्रा का अवसर भी मिलेगा, और दिनों बाद मां के साहचर्य का सुख भी पा सकूँगा। कितनी अच्छी हैं वे, कभी कोई वर्जना या रोक-टोंक नहीं करतीं। बस चुपचाप दूर से ही मेरे अनेक जतन करती रहती हैं। वे मुझे कितना समझती हैं ! अचम्भा होता है ।
उस दिन भोर के धुंधलके में ही, तोरण-द्वार पर कई रथ प्रस्तुत हुए । महादेवी ने संकेत किया कि मैं उन्हीं के रथ में, उनके साथ यात्रा करूंगा। मेरा रप लेकर गारूड़ साथ-साथ पीछे आयेगा। मेरे प्रासाद-खण्ड का नवागत कुमारीवन भी चलने को प्रस्तुत था। उन सबकी निगाहें एकाग्र मेरी ओर लगीं थीं। अन्तःपुर वासिनियों के और भी कई रथ, प्रभातियों और मंगल-गीतों से गुंजित थे। शहनाइयों, शंख-ध्वनियों, दुंदुभियों और घंटनादों के साथ रथमालाएँ नगरपौर से प्रस्थान कर गई। - मार्ग में चारों ओर शरद ऋतु की प्रसन्न और सुनीला प्रकृति मुस्कुरा रही थी। धान्य के दूर तक फैले खेतों की हरियाली, हवा में हौले-हौले झीम रही थी। कुन्द और पारिजात फूलों की भीनी-भीनी सौरभ शारदीय प्रभात की नवीन शीतलता में घुल रही थी। गण्डकी तट के कास-वनों में एक पवित्र श्वेतिमा, उज्ज्वल कौमार्य की आभा से दीपित थी। गण्डकी के जलों में प्रचण्ड वेग के साथ ही , एक कोमल लचाव और उद्दाम उभारों की तरंग-लीला चल रही थी।
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