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________________ बन, भीतर के एक ऐसे मिलन-सुख में रम्माण है, कि बाहर की रमपी या प्रिया को लेकर कोई व्याकुलता या अनाश्वस्ति उठती ही नहीं। हर चीज़, हर व्यक्ति, हर कटाक्ष, हर अंगड़ाई, अपने स्थान पर है, मैं अपनी जगह पर हैं। इन सबकी अपनी-अपनी एक नित-नूतन भाव-भंगिमा हर समय प्रकट होती रहती है : उसके दर्शन से मैं सहज आनन्दित रहता हूँ। हर वस्तु की अनुक्षण बदलती भावलीला को, मैं अपनी आन्तरिक भावलीला के साथ, एकतानता से जानता, जीता, भोगता हूं, तो मेरे आनन्द का अन्त नहीं होता। भोगना नहीं पड़ता, सहज ही सब कुछ भीतर भुक्त होता रहता है। तो मैं अनायास युक्त और मुक्त होता रहता हूँ। हर वस्तु का यह भाव ही उसका स्वरूप है। परिणमन ही उसकी एक मात्र स्थिति है, परिभाषा है। और परिणमन ही तो रमण है। ___सो पिता और माँ का विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ, कि उन्होंने मुझे काम, सम्मोहन, ऐश्वर्य, विलास के बीच भी मुक्ति के चरम-परम अनुभव का अवसर दिया। और ये सारी बालाएँ कितनी अच्छी हैं, कितनी हृदयवती, प्रीतिनी, आरती और अंजुलियों की तरह समर्पणवती। पूजा-अर्चा, धूप-दीप, यज्ञ-हुताशन और आहुतियों की तरह पाबन हैं ये। इस मदन-यज्ञ में से जिस चिदग्नि का स्पर्श-सुख पाया है, वह अनिर्वच है। यहाँ की हर कुमारी ने एक ज्वाला की तरह मेरा आलिंगन किया है, और मैं उसमें से अधिक-अधिक उजलता गया हूँ। ___ में और अधिक स्वयं हा हूँ, वे और अधिक अपने सौन्दर्य में प्रभास्वर हुई है। जीवन और किसे कहते हैं ? भोग की और क्या सार्थकता? मुक्ति की और क्या परिभाषा ?... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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