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________________ ११२ निछावर होते-से, किसी राजसिंहासन, किरीट-कुण्डल, स्वर्णतार वसनों के बिखरते तानों-बानों का आभास ! · · · कपिल की भूमि पर पुरुष की जयलेखा! ___ रथ वहीं खोल दिया। घोड़ों को इक्षु के खेतों के पास मधुर हरियाली में चरने को छोड़ दिया। अनोमा ने अपनी अणिमा और गरिमा का रहस्य खोला। मेरे पैर जाने कैसे लचीले गहरावों और उभरावों पर चलते चले गये। · छाया की तरह कोई पीछे साथ चल रहा था। उषीरध्वज के ढालों पर चढ़ते हुए, भोज और देवदारु. की कानन-वीथियों में रंग-बिरंगे फूलों के अन्तःपुर खुलते जा रहे थे । सुगन्ध यहाँ पेशल-सी होकर, तन-मन को अपनी शीतल ऊष्मा में, एक विचित्र आप्त भाव से सहलाती रहती है। . . . फिर हिम चट्टानों की खड़ी चढ़ाइयों पर चलना संभव न रहा। शिखर अदृश्य हो गये। कहीं-कहीं चट्टानों के नुकीले उभरावों को दोनों हाथों से पकड़ कर, एक अभेद्य हिमावृत काठिन्य से मैं लिपटता चला गया। अनायास उत्संगित और उत्तोलित होता चला गया। विराट, दुर्जेय हिमानी का वह एक दुर्निवार और दुःसह आलिंगन था। समूचा हिमवान मानो आपाद-मस्तक मेरी भुजाओं में सिमटता चला आ रहा था। शरीर पर वस्त्र का एक लत्ता भी शेष नहीं रह गया था। शीत : 'शीत . 'अपरम्पार शीत : आरपार शीत। मैंने देखा अपने भीतर : हिमवान स्वयम् अपनी कोट्यावधि वर्षों की जमी हिमानी की गोद में धंस कर, उसे भेदता चला जा रहा था। मानो अपने ही शत-कोटि आवरणों को चीर कर, अपने परात्पर, नग्नातिनग्न स्वरूप को उपलब्ध किया चाहता था । प्रकृति और पुरुष यहाँ द्वंद्वातीत रूप से आश्लेषित थे। कब पुरुष प्रकृति हो गया, कब प्रकृति पुरुष हो रही : नहीं मालूम · · नहीं मालूम' - ‘नहीं मालूम । __.. 'हिरण्यचूल शिखर पर खड़े होकर मैंने पाया कि मेरे पादतल की एक महान्धकार गुफा,. मेरी कटि से लिपट कर, मेरी जंघाओं के बीच आरपार खुल उठी थी। उसकी आदि पुरातन तमिस्रा मुक्त कुन्तलों-सी बिखर कर मेरी पगतलियों से रभस कर रही थी। आकाश मेरे बाहुमूलों में शरण खोजता-सा मेरे चौड़े कन्धों पर उत्तरीय बन कर झूल जाना चाह रहा था। पश्चिमी समुद्र के दूरातिदूर क्षितिज की घनश्याम रेखा पर अस्तंगत सूर्य मानों मेरी प्रतीक्षा में ठिठका था। कि उसकी कोर पर पैर धर कर मैं पृथ्वी के अंक में लौट आऊँ।. . . ' लौट कर जब आया, तो रात गहराने लगी थी। मेरे खण्ड के वातायन पर मां निष्कम्प लौ-सी टकटकी लगाये बैठी थीं । कक्ष में जब मैंने प्रवेश किया, वे सामने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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