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________________ १०१ पुरुष स्वयम् ही लोकाकार, सर्वाकार, तदाकार हो उठता है । वह अद्वैत महासत्ता रूप हो उठता है। सर्व में, केवल एक निष्कल आत्मानुभूति शेष रह जाती है। - - यात्रा पर अब चाहे जब निकल पड़ता हूँ। स्वयम् ही अपना रथ हाँकता हूँ। सारथी का प्रश्न बीच में बाधा लगता है । हिमवान की हिमानियों का आवाहन दिनों-दिन अनिवार्य होता जा रहा था। सो निकल पड़ा, एक दिन। . स्वच्छ, नीला आकाश ज़रा झुक कर रथ पर चंदोवे-सा छा गया था। दूरियों और विस्तारों में, तन और मन फैलते जा रहे थे। तराई के प्रदेश में हवा पानीली हो चली थी। उसमें वनस्पतियों और ताज़ा धान्यों की भीनी-भीनी गन्ध घुल रही थी। पर चैत्र के सवेरे की हलकी मुहानी धूप में, उषीरध्वज पर्वत पर से हिमानियाँ पिघल कर महीन धाराओं में तराई की ओर हौले-हौले बही आ रही थीं। उषीर की शीतल गहरी सुगन्ध से वातावरण में जाने कैसी अनजान स्मृतियाँ-सी उभर रही थीं। दूर-दूर तक शालि और तन्दुल धान्यों के खेत हवा में लहलहा रहे थे। सहस्रावधि वर्षों की पुरातन इमलियों और आमों के झुर्मुटों से गुज़रता रथ, रोहिणी और राप्ती नदियों की दोआब भूमि में प्रविष्ट हुआ। उधर परे को हटकर गभीर शालों का वन था। उसके उत्तर-पूर्व में शाक्यों की कपिलवस्तु की भवन-अटाएं, गुम्बद, पताकाएँ झाँक रही थीं। कपिलवस्तु, महर्षि कपिल की भूमि : मेरे पुरुष ने प्रकृति को अपनी जंघाओं में संसरित अनुभव किया। पुष्पित शालवन के गहरावों और वीथियों का आमन्त्रण रथ को उधर ही खींच ले गया। लुम्बिनी-वन के शाखान्तरालों में आकाश अपनी ऊँचाई का गर्व भूल, जैसे वसुन्धरा की बाँहों में समर्पित-सा हो गया है । रथ से उतर कर, उस निर्जनता में खेलती धूप-छाँव के शाखा-चित्रों में जाने कौन सी अलक्ष्य लिपियाँ पढ़ता लुम्बिनि-कानन में बहुत देर विचरता रहा। सहसा ही एक शाखा ने झुक कर मानो मुझे प्रणाम किया, और बाँह से लिपटसी गई। यह कौन जन्मान्तरों की बान्धवी है ? मन एकदम ही निर्विकल्प और नीरव हो गया। तृण-तृण, कण-कण की सजीवता चारों ओर से मेरे समस्त को छुहलाने लगी। ___ लौट कर रथ पर चढ़ आगे बढ़ा । शालों का आवरण भेद कर अनोमा नदी का विशाल वक्षस्थल सामने उघर आया। सात ऋषभ विस्तार के इस पाट पर जैसे चलने का आमंत्रण बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। दूर-दूर जाती लहरों के कुंचनों में कोई काली कुटिल अलकावलियाँ बही जा रही थीं। उन पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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