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कसमसाते ब्रह्माण्ड
उस दिन सारा विन्ध्यारण्य ही जैसे मेरे भीतर चला आया। कभी-कभी काली का सर्वांग रूप अपने ही अांग में आविर्मान देख लेता हूँ। तो कभी वही रह जाती है, मैं नहीं रह जाता। पर उसे जो देखता है, वह कौन है ? · · · अपने ही मर्म की कस्तूरी का वह मूर्त-स्वरूप, एक निराकुल प्रीति से प्राण को विश्रब्ध कर देता है। · भीतर ही बैठी, इस प्रिया को कहीं खोजना नहीं है । और वह दुर्दान्त अष्टापद ? काली की गोदी की अभेद्य अन्धकार गुहा में ही तो रहता है वह ।
. . . ' अब तक नारी प्रश्न-चिन्ह सी सामने आती थी। टोंक देती थी । अब वह भीतर से ही उमड़ने लगती है : अपने ही मूलाधार में से उत्सित ऊर्जा का स्रोत । अपनी ही आद्या शक्ति : अपनी ही अनाहत रक्तधारा। मेरी ये बाँहें ही चाहे जब अचानक, उसकी मृणाल बाहुएँ हो उठती हैं । इन्हीं की सम्मोहिनी कोहनी पर माथा ढाल कर, अन्तर्मिलन के विलक्षण सुख में समाधिस्थ हो रहता हैं। लिंग भी भीतर ही है : योनि भी भीतर ही है। बाहर विरह का अन्त नहीं। भीतर नित्य मिलन का वसन्तोत्सव चल रहा है।
- फिर भी अपने महल के उत्तरी कोण-वातायन पर जब खड़ा होता है, तो पाता हूँ, कि हिमवान की हिमानी चोटियाँ पुकार रही हैं । उज्ज्वल कौमार्य का वह आवाहन, अब व्याकुल नहीं करता, पर सृष्टि का एक अदम्य उन्मेष प्राण में जगाता है। भीतर ही तो सब कुछ नहीं : बाहर भी तो है ही। आत्म है कि आत्म-विस्तार अनिवार्य है। वही सृष्टि है : अपने में न समाते अनन्त शान, दर्शन, सुख, वीर्य की अनिर्वार अभिव्यक्ति है वह। अपने ही आत्म-राज्य का विस्तार । अपने ही को अपने से अलग कर, रच कर, मूर्त करके उसमें रमण करने का आनन्द । वही जीवन है। मुक्ति कहीं किसी निर्धारित सिद्धालय के कपाटों में बन्द नहीं। निर्बाध, निर्बन्धन , निराकुल जीवन ही मुक्ति है। तब
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