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तक घर से निकल न पड़ें, मोहोष्म शैया के सुख से निष्क्रान्त न हो जायें, तब तक तुम से मिलन संभव नहीं।'
उस सुनग्ना ने अपने सहस्रों मोहरात्रियों-से घनीभूत केश मेरे चरणों पर ढाल दिये। - 'मेरे पैर आँसुओं और चुम्बनों से गीले हो गये।
मैं सहसा ही एक दूसरे चेतना-स्तर पर संक्रान्त हो गया। मैंने झुक कर, उसके माथे को उठा कर, उसे बैठा दिया। और उसके अंक में सर धर कर उसके वक्षोज-तटों को अपनी आँखों की रोआँली से सहलाता रहा।
'माँ · · ·sss!'
'हाँ · · ·sss!' ' सारी वनभूमि पंछियों के कूजन में जयगान कर रही थी। फूलों की अँजुलियों में परिमल छलक रहे थे। हवा में अदृश्यमान वीणाएँ बज रही थीं।
रथ पर चढ़ कर, जब मैं फिर पूर्वांचल की ओर लौट रहा था, तब एक विचित्र नई अनुभूति सतत हो रही थी। · · क्या मैं वही हूँ, जो कल ब्राह्म मुहूर्त की द्वाभा में घर से निकल पड़ा था, अलक्ष्य यात्रा के पथ पर? नहीं, वही नहीं हूँ, उत्तीर्ण एक और · · एक और हूँ। फिर भी वही हैं, जो कल के अपने को, और आज के इस उत्तीर्ण को, एक साथ देख रहा है। अब लौटकर कहाँ जाना है, पता नहीं । अपनी पृथ्वी, अपना आकाश केवल मैं हूँ, मैं ही अपनी दिशा, अपना सौरमण्डल हूँ। फिर लौटने को क्या रह गया है ! ..
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