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आ स्तम्भित-सी खड़ी, सर से पैर तक मुझे ताकती रहीं । कुछ पूछने की हिम्मत वे न कर सकीं। उनकी आँखों में नदियाँ थमीं थीं । मझरात के एकाकी दीये-सा एक आँसू रत्नदीपों की सौम्य ज्योति में चमक उठा । मेरे ललाट पर झूलती अवहेलित अलकों की एक गुंजल्कित नागिन को हल्के से सहला कर, वे चुपचाप, धीरेधीरे वहाँ से चली गईं। उनके कंकणों की महीन ममताली रणकार, मेरे आरपार गूँजती चली गई ।
'दिशाएँ चारों ओर जयमाला लिए खड़ी हैं। भीतर अपने ध्रुव पर स्थिर हूँ पर बाहर कहीं ठहराव संभव नहीं रहा है । जाना है 'जाना है' जाना है । कहाँ जाना है, ठीक नहीं मालूमे । निरन्तर यात्रा में ही जीवन को सार्थक और परिभाषित होते देख रहा हूँ । मेरे पैर सिंहासन और महल में टिके रहने को नहीं बने : वे निरन्तर और अविराम चलने को जन्मे हैं | किनारे से चलता हूँ, और दृश्य जगत की तमाम वस्तुओं के भीतर से यात्रा होती रहती है । चारों ओर से दिग्वधुओं के घूंघटों की पुकार सुन कर आतुर चंचल हो उठता हूँ ।
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उस दिन पूर्व दिशा में सूर्योदय होते देखा, तो विपुलाचल का स्मरण हो आया । वैभार पर्वत के उभारों पर अपने पैर पडते-से दीखे । '
'अपने 'मित्रावरुण' रथ पर आरोहण करते हुए, भिनसारे की चाँदनी वैशाली के दक्षिणी सीमान्त को पार कर, मगध के देव- रम्य चैत्यों और वन-काननों
से गुज़रने लगा । अत्यन्त सम्वादी. लयवद्ध जैसी लगती सघन वन श्रेणियों के बीच से गये राजमार्ग पर बड़ी मसृण और ऋजुगति से रथ फिसलता जा रहा था । गति के वेग, और अश्वों की टापों से परे, किसी अनाहत प्रवाह में फूल की बरह बहने का अहसास हो रहा था ।
'गृध्रकूट पर्वत की चोटी पर पहुँच कर देखा, सामने विपुलाचल के एकाकी शृंग पर सूर्योदय हो रहा है । किसके सिंहासन का भामण्डल है यह ? - • वैभार की शिखरावलियाँ दोनों ओर से आकर दिगंगनाओं-सी, उसके पादप्रान्त में नतमाथ हो गई हैं । आर्यावर्त की ससागरा पृथ्वी अपना वक्ष विस्तृत कर प्रस्तुत है, कि उस सिंहासन का आगामी अधीश्वर उस पर पग धारण करे । मेरे पैर किस महाचक्रमण की सिंह- धीर गति से चलायमान हो उठे हैं !
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सहस्र सहस्र मुण्डों
के बीच उल्लंबमान अपने को चलते देख रहा हूँ ।
इस गृध्रकूट की किसी तलगामी गुफा में से वीणा वादन की झंकार सुन रहा हूँ । सुनता हूँ इस पर्वत में गन्धर्वों के आवास हैं । वीणा की इन सुरावलियों में अपना स्वागत गान सुनाई पड़ रहा है ।हाँ गन्धर्व, तुम्हारी वीणा सुनने
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