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कर, केवट ने हमें पार उतार दिया। मेरी प्रश्नायित आंखों के उत्तर में बोला : 'यह मल्लों का पावा प्रदेश है, प्रभु !'
आरूढ़ होते ही मैंने रथ को पश्चिम की ओर गतिमान पाया। कुछ योजन यात्रा करने पर, एक और नदी सम्मुख आई। रथ रुका नहीं। - ‘अचिरावती की लहरों पर छलांगें भरते अश्व, हवा में उत्तोलित से लग रहे थे । भूमि, जल, हवा, आकाश की सन्धियों पर इस विक्रिया को होते देखा । जान पड़ा, आगे कोई स्थल है, जिसमें अदम्य और अनिर्वार आकर्षण है। रथ की गति बहुत क्षिप्र, तिर्यक्, फिर भी ऊर्ध्वगामी-सी लग रही थी।
· · · गहन शालवन के भीतर प्रवेश करते हुए लगा कि, यात्रा अपने ही भीतर की ओर हो रही है। उसमें अतिक्रमण, और प्रतिक्रमण की अनुभूति एक साथ हुई। ____दो जुड़वाँ शालों के समीप पहुँच कर, रथ स्तंभित हो गया : दूर शिलातल पर बैठी एक अकेली बालिका शाल-पुष्पों की माला गंथ रही थीं। मेरी जिज्ञासा को भाँप कर वह बोली । 'यह कुशिनारा है, महाराज, मल्लों का कुशिनारा ।'
'और तुम !' 'मैं इन शालों की हूँ, ये मेरे · · ·। मैं शालिनी ।' 'यह माला किसके लिए गूंथ रही हो ?' 'यहाँ मेरे देवता आने वाले हैं ?' . 'कौन देवता ?' 'नाम नहीं मालूम ! अनाम - ‘महानाम. . . ' 'कब आयेंगे ?' 'तुम क्या वही नहीं हो ? तुम भी तो वही हो !' 'तुमने तो कहा आने वाले हैं ?'
'आ गये, तुम ! · · · आगे फिर आओगे, एक बार और । एक और ही रूप में । तब मेरी गोद में सो जाओगे तुम । इसी शिलातल पर ।'
'आज नहीं ?'
'नहीं, आज मेरी जयमाला धारण करो। · · ·आगे जो देवता आयेगा वह मेरी गोद में अन्तर्धान हो जायेगा . ।'
'और मैं ?' 'तुम उसे पार कर आगे जा चुके होगे !'
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