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गारुड़ केवल वल्गा खींचता रहा और कई योजन पार करने पर उसे एकाएक लगा कि उसका चिर परिचित प्रदेश जाने कहाँ पीछे छूट गया है।
'देव, दिशा खो गई है, क्षेत्र परिचित नहीं रहा !'
गारुड़ की कठिनाई मैं समझ गया। इसके आगे उसके सारथ्य की गति नहीं थी। मैंने कहा : 'गारुड़, तुम किसी पन्थी-रथ से लौट जाओ । मेरा गन्तव्य मुझे भी नहीं मालूम, पर वह अभी बहुत दूर है . . । वल्गा मुझे थमा दो, रथ मुझे यथास्थान पहुंचा देगा?'
'देव' . .!'
'तुम्हारा असमंजस समझ रहा हूँ, सारथि ! महादेवी पूछे, तो कह देना, वनविहार को निकला हूँ । सानन्द शीघ्र लौट आऊँगा।'
पहले तो गारुड़ बहुत परेशान हुआ। पर प्रश्न उठाना उसे औद्धत्य लगा। एकाएक मेरी ओर देख वह आश्वस्त हुआ। रथ से उतर मेरे पैर छूकर वह चुपचाप एक ओर खड़ा हो गया । ईषत् मुस्करा कर एक बार मैंने उसकी ओर देखा, और अगले ही क्षण मैंने सारथि के आसन पर चढ़, वल्गा खींच ली । पल मात्र में रथ हवा से बातें करने लगा। ___ सच ही, गन्तव्य मुझे नहीं मालूम था। फिर भी अन्तर में प्रतीति थी, कि ठीक किसी निश्चित लक्ष्य पर जा रहा हूँ। दोनों अश्वों को उनकी अपनी स्वतंत्र गति पर छोड़ दिया। वल्गा अपनी जगह पर खिंच रही थी। उसे खींचते अपने हाथों को, अपने से अलग, स्वयम् संचालित देख रहा था। मैं अपने में सुस्थिर था, फिर भी धाबमान । रथ अपने चक्र, कलश, पताकाओं के साथ, अपने ही आप में वाहित था।
दूरियों में कई ग्राम, नगर, पुर, प्रदेशों के श्वेत भवन, अटारियाँ, गुम्बद, उद्यान, सरोवर, वापियाँ : एक एक कर चल-चित्रों की माला से गुजरते चले जा रहे थे। रथ उनके तटों और प्रान्तरों को छूता, वन्य-मार्गों पर निश्चित भाव से आरूढ़
पूर्वाह्न बेला में एक नदी के तट पर आकर रथ रुका। किनारे पर बंधी बड़ी सारी नाव के केवट ने बताया : यह रोहिणी नदी है । अपनी बाँयी भुजा पर बंधा केयूर मैंने केवट की सियाह भुजा पर बाँध दिया। वह सजल नयन, मूक, मुझे निहारता रह गया । मानो कि मैं इस लोक का नहीं, किसी अदृश्य में से आ खड़ा हुआ हूँ। 'चलो केवट, उस पार!' घोड़ों सहित रथ को अपनी विशाल नाव में चढ़ा
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