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________________ मां, पिता और सारे परिजनों को यह समझा सकता, मगर समझा कर भी क्या होगा। यह एक ऐसा अनुभव है, जो कथन में प्रेषित नहीं हो पाता। पिछले वसन्त, बड़ी भोर की चाँदनी में कोयल की डाक मुनाई पड़ी थी। कोयल तो वसन्त में चाहे जब कूकती ही रहती है । लेकिन उस ब्राह्म मुहूर्त की चाँदनी में जो दरदीली डाक सुनाई पड़ी थी, वह भीतर जैसे अन्तहीन होती चली गई थी। हवा में आम्र-मॅजरियों की ऐसी गहरी महक थी, जैसी पहले कभी अनुभव नहीं हुई थी । सुगन्ध शरीर धारण कर वातावरण में एक अजीब स्पर्शाकुलता अगा रही थी। दूर-दूर तक भी चाँद तो कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था, पर चाँदनी दिशान्तों तक बाँहें पसारे जैसे अधिक-अधिक निर्वसन होती जा रही थी। कोयल की डाक में दूरियाँ पुकार रही थीं। दूरी आकर्षण है । वह आवश्यक है। वह आमन्त्रण है। विरह की व्याकुलता है उसमें, कि मिलन हो । दूरी है कि दृष्टि है, आकर्षण है, परिरम्भण है, सृष्टि है । दूरी में वस्तुएँ यथास्थान, अपने आयतन में रहती हैं। अपनी जगह पर । दूरी के परिप्रेक्ष्य में ही वस्तुओं का सही चेहरा पहचाना जाता है । जहाँ वे हैं, वहीं वे स्वतंत्र हैं । वहीं वे सुन्दर हैं । दूरी में ही वस्तु के असीम और अनन्त का दर्शन सम्भव है। _____ कोयल की उस डाक में, उन्हीं अगम्य दूरियों का आमन्त्रण था । सहसा ही लगा कि कोई नियत मुहुर्त सामने है । ' - 'किस अज्ञात में अन्तरित है, इस चाँदनी का चन्द्रमा ! ओ कोयल, तुम कहाँ से पुकार रही हो? • एकाएक मैं शैया त्याग कर उठ बैठा। नीचे उतर कर, महल के बाद महल, द्वार के बाद द्वार पार करता, रथागार में आ पहुँचा । अपने सारथि गारुड़ को जगा कर कहा : 'गारुड़, जाना होगा, रथ प्रस्तुत करो।' · · वल्गा हाथ में लेते ही गारुड़ ने पूछा : 'किस दिशा में चलेंगे कुमार ?' 'पश्चिम दिशा में !' काफी दूर निकलने पर, एक चौराहे पर पहुँच कर, सारथि ने फिर पूछा : 'स्वामी, काशी, कोसल, कौशाम्बी, किस ओर चलूं ? ' मेरे मुंह से निकला : 'किसी भी ओर, जिधर रथ ले जाये ।' सारथि ने फिर अनुरोध किया : 'वल्गा तो मेरे हाथ में है, और घोड़े मेरे अधीन !! 'नहीं गारुड़, वल्गा आज तुम्हारे हाथ नहीं, और घोड़े तुम्हारे अधीन नहीं। जाने दो रथ को, अपनी स्वाधीन दिशा में !' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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