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________________ 'और तुम · · · ?' 'मैं सदा तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा में रहूँगी।' · · ·और बाला ने उचक कर माला मेरे गले में डाल दी । मैं नतशिर हो रहा : चुप । सर उठा कर देखा : वह कन्या दूर वनान्तर में औझल होती दीखी। शिला पर अवशिष्ट फूलों को मैंने स्पर्श किया। वे फूल बन्धु थे : ऊष्माविल थे। उनकी सुगन्ध में एक गहन शून्य उभर रहा था । उसमें यात्रा करते लगा कि वह पथ संगी था : मैं उसमें से पार होकर, ऊपर की ओर, एक सूर्यचूड़ा पर आरोहण कर गया। · · मैंने पाया कि अपने रथ पर, विद्युत्-वेग से उड्डीयमान हूँ। अपरान्ह की कोमल पड़ती धूप-छाँव में, मेरे रथ के अश्व सौ-सौ योजनों को छलांगों में पार करते जा रहे थे । गति के उस प्रवेग में, राह के भूप्रान्तरों, वनांगनों, विकट कान्तारों, दुर्गम वीहड़ों को जैसे चक्रवात में घूमते देख रहा था, और अपने अज्ञात लक्ष्य की और पलायमान था। संध्या झुक आई । एक अर्द्धमंडलाकार, आकाशवेधी पर्वतमाला के दो कँगूरों के बीच सूर्य का बिम्ब एक गुल्म की सूक्ष्म डालों के अन्तराल में डूब रहा था। और उसके उपत्यका प्रान्तर की एक चट्टान पर रथ सहसा स्तंभित हो गया। चारों ओर बीहड़ और घनघोर कान्तार था। मनुष्य की पगचाप उसे अनजानी थी। अफाट सन्नाटा था । ऐसा कि, उस स्तब्धता के भीतर एक अनहद नाद साफ सुनाई पड़ रहा था । और वह उस नीरव अरण्य में विराट् देह धारण कर मुझे चहुँ ओर से आवरित किये ले रहा था। - ऐसी ऊष्मा का अनुभव तो पहले कभी नहीं किया या । जाने कैसे गभीर वक्षोजों के गव्हर में मैंने अपने को डूबा पाया। उसमें वनस्पतियों की कच्ची, पानीली, दिव्य सुगन्ध के भीतर मैं आत्मलीन हो रहा । एक नीली मृदुता की आभा के अगाध स्पर्शबोध में मैं विश्रब्ध हो गया। · · · यह किस सुनीला का परिरम्भण है ? · · ·एकाएक सुनाई पड़ा : 'देवार्य, तुम यहाँ कैसे ?' मैंने आँखें उठाकर देखा । प्रदोष बेला की घिरती द्वाभा में, सामने के पर्वत की चट्टान में से कट कर आयी-सी एक भील-कन्या खड़ी थी। साक्षात् सुनग्ना महाकाली। 'क्या चाहती हो, काली ?' 'इस अन्तिम विन्ध्यारण्य में, आज तक कोई मनुष्य नहीं आया । आ सके ऐसा वीर्य मनुष्य में नहीं । तुम मनुष्य होकर भी आयें हो, तो विन्ध्यवासिनी तुम्हारा अभिनन्दन करती है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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