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________________ जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || युगों-युगों तक सत्यवादी हरिश्चन्द्र के नाम से विख्यात हो सकते थे? उनकी भी वही गति होती जो अन्य अनगिनत राजा-महाराजाओं की हुई। गुरु पर ऐसी श्रद्धा-भक्ति होने पर ही ऐसी फलश्रुति होती है। वे गुरु दक्षिणा भी उन्हीं से लेते हैं तथा ऐसा ज्ञान भी उन्हें ही देते हैं जिन्हें वे इस योग्य समझते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि- पात्र बिना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान। अर्थात् अनुकूल पात्र के बिना वस्तु भी नहीं रहती। शेरनी का दूध सोने के पात्र में ही सुरक्षित रह सकता है वैसे ही सद्ज्ञान भी हर शिष्य पचा नहीं सकता। भद्रबाहु स्वामी ने इसी कारण तो स्थूलिभद्रजी को 10 पूर्वो के ज्ञान के बाद अपनी बहिनों के सामने शेर के रूप में प्रदर्शन करने पर उन्होंने संघ के विशेष अनुरोध से अन्तिम चार पूर्वो की वाचनी तो दी, लेकिन उसका रहस्य नहीं बताया। आत्मार्थी साधक रायचन्दजी ने गुरु की महिमा को बताते हुए कहा है प्रत्यक्ष सहरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार। एवो लक्ष्य थया बिना, ऊगे न आत्मविचार।। सद्गुरु के प्रत्यक्ष योग बिना तथा परोक्ष में तीर्थंकर परमात्मा के उपकार के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति हुए बिना आत्मविचार, आत्मचिन्तन तथा आत्मदर्शन सम्भव नहीं है, क्योंकि मानादिक शत्रु महा, निज छंदे न मराया जातां सद्गुरु शरणमां, अल्पप्रयासे जाय।। मानादिक कषाय आत्मोत्थान में महान शत्रु हैं। वे स्वयं के प्रयास से जल्दी जाते नहीं, क्योंकि स्वयंपाठी होने पर अपनी विद्वत्ता पर अहंकार अथवा घमण्ड आ जायेगा, लेकिन सद्गुरु के चरणों में जाने से अल्प प्रयास से ही कषायादि तिरोहित हो सकते हैं। गुरु भटके हुए शिष्य को सही मार्ग पर लगा सकता है । कल्याणमन्दिर स्तोत्र के रचयिता श्री सिद्धसेन दिवाकर गुरु से हठ करके न्याय दर्शन सीखने बौद्ध गुरुओं के पास चले गये। वहाँ मान-सम्मान पाकर वे इतने गृद्धित हो गये कि बौद्ध धर्म के आचार्य पद पर आसीन होने की स्वीकृति दे दी। लेकिन अचानक उन्हें गुरु आश्रम से प्रस्थान के पूर्व गुरु का अन्तिम वाक्य स्मृति में आ गया कि कुछ अन्यथा ग्रहण करने पर आशीर्वाद लेने अवश्य आना। वे गुरु दर्शनार्थ आये, लेकिन वंदन की औपचारिकता देख गुरु भांप गये कि शिष्य भटक गया है। उन्होंने शिष्य को दशवैकालिक शास्त्र हाथ में देकर जंगल से वापिस आने तक रुकने को कहा। सिद्धसेन दिवाकर ज्यों-ज्यों उसे पढ़ते गये उनकी आँखों से अज्ञान का पर्दा उठने लगा और गुरु के आते ही उनके चरणों में समर्पित हो गये। गुरु ऐसे ही भटके हुए शिष्यों तथा श्रावकों को सही मार्ग पर ले आते हैं। कबीरदास जी तो यहाँ तक कहते हैं - कबिरा ते नर अंध है, गुरु को मानत और। हरिस्ठे गुरु ठोर है, गुरु रुठे नहीं ठौर।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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