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जिनवाणी
आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदय प्रयोग। अपूर्व वाणी परमश्रुत सब्गुरु लक्षण योग्य।। अर्थात् जो आत्म ज्ञानी है, परभाव की इच्छा से रहित हो गया है, तथा शत्रु ·
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सत्कार
र-तिरस्कार आदि के प्रति समताभाव रखता है, जो पूर्वकृत कर्मों के उदय के प्रति जागृत रहते हुए क्रियाएँ करता है, जिसकी वाणी अपूर्वता की द्योतक है तथा श्रुत ज्ञान का ज्ञाता है, वही सद्गुरु कहलाने का अधिकारी है । हमारी संस्कृति में ऐसे गुरु को ही महत्त्व दिया गया है - यथा
10 जनवरी 2011
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ||
कभी सती मदालसा ने मां के रूप में, कृष्ण ने पिता-पति- भाई के रूप में तथा, महासती चन्दना ने
भाणजी के रूप में गुरु बनकर तिराने का काम किया है।
इतना आदर, सत्कार, सम्मान गुरु को क्यों दिया, इसको स्पष्ट करते हुए ऋषि कह रहे हैंअज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया ।
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मित्र, हर्ष - शोक,
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
वे अज्ञान रूप अन्धकार को मिटाने के लिये ज्ञानरूपी अंजनशलाका से चक्षु को खोल देते हैं, अर्थात् सही आन्तरिक दृष्टि प्रदान कर देते हैं। ऐसे वन्दनीय गुरु वही होते हैं जो देह में रहते हुए देहभाव से विरत होते हैं अर्थात् देह की ममता से ऊपर उठे हुए केवल आत्मभाव में रमण करते हैं, ऐसे गुरु के प्रति समर्पण भाव कैसा
हो ?
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः, पूजामूलं गुरोः पदम्। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं, मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।
ऐसा समर्पणभाव एकलव्य में था । द्रोणाचार्य राजगुरु थे और एकलव्य एक गरीब अनाथ बालक। वह उनसे धनुर्धारी बनने की शिक्षा नहीं ले सकता था, अतः उसने जंगल में गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उनकी साक्षी में धनुष-बाण चलाने में अर्जुन से भी अधिक कुशलता हासिल करली। लेकिन द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य अर्जुन को धनुर्विद्या में प्रथम पंक्ति में रखने के लिये गुरु दक्षिणा में एकलव्य से अंगूठा मांग लिया और शिष्य एकलव्य भी ऐसा जिसने गुरु के कहने पर वर्षो की धनुषबाण की साधना का महत्त्वपूर्ण अंग अंगूठा भेंट कर अपना नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अमर कर दिया।
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हमारे प्राचीन इतिहास में ऐसे कई गौरवशाली कथानक हैं कि शिष्यों ने गुरु दक्षिणा में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। अयोध्यापति महाराजा हरिश्चन्द्र ने अपने गुरु वशिष्ठ के मांगने पर अपना सम्पूर्ण राज्य उनके चरणों में समर्पित कर दिया था। क्योंकि उन्हें गुरु में इतना विश्वास था कि इसमें भी मेरा कुछ भला है इसलिये उन्होंने ऐसी मांग रखी है। वास्तव में यदि वशिष्ठ ऐसी मांग नहीं करते तो क्या महाराजा हरिश्चन्द्र
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