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________________ | जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || हृदयस्पर्शी वाणी से सभा को अश्रुपूरित करने वाले पूज्य श्रमण श्री क्षमासागर मुनि कहते हैं, "समर्पण की पीड़ाएँ स्वच्छन्दता के सुखों से श्रेयस्कर हैं।" ___ इन्द्रियों एवं मन पर विजय पाना स्वेच्छाचारी मनुष्य का कार्य नहीं है, अतः गुरु कठोर-आचरण द्वारा शिष्य को पहले कष्ट-सहिष्णु बनाते हैं। सुविधाभोगी मानव अध्यात्म का पात्र नहीं होता। जो इन्द्रिय-जगत् से ऊपर नहीं उठा, वह आध्यात्मिक जगत् में कैसे अवकाश पा सकता है? चूँकि विषयी मानव की संवेदनाएँ मृतप्राय हो जाती हैं, वह भावना-जगत् में भी स्थान नहीं प्राप्त कर पाता। भावनाजगत् में आए बिना शुद्धीकरण प्रारम्भ नहीं होता। घृणा, उदासी, निराशा, ईर्ष्या, आघात, तनाव आदि नकारात्मक भावनाएँ सत्प्रेम, करुणा, सत्यनिष्ठा, निःस्वार्थ-सेवा, भक्ति आदि सद्भावनाओं द्वारा विलय को प्राप्त होती हैं। शिष्य की भावनात्मक-शुद्धि के लिये कभी तो गुरु उसे वात्सल्यपूर्वक प्रोत्साहित करते हैं, तो कभी कठिन प्रायश्चित्त द्वारा प्रताड़ित भी करते हैं। शिष्योत्थान के प्रति समर्पित गुरु का उपकार एक ऐसा ऋण है, जिसे निर्वाण प्राप्त कर ही चुकाया जा सकता है। संसार में गुरुकृपा सबसे निराली, होली यही दशहरा यह ही दिवाली। जो शिष्य है वह सदैव ऋणी रहेगा, कोई कमी न उपकार चुका सकेगा। सन्त कबीरदास जी ने कहा है गुरु कीजिये जानि के, पानी पीजै छानि। बिना विचारे गुरु करै, परै चुरासी खानि ।। यह उसके लिये चेतावनी है, जो शिष्य बनकर अपना जीवन गुरु को सौंपने जा रहा है। उतावली का परिणाम घोर पश्चात्ताप हो सकता है, अतः पुरातन शास्त्रों में प्राप्त गुरु-विषयक कुछ सामग्री पर दृष्टिपात करना हितकर होगा। पञ्चम शती के विद्वान् तपस्वी आचार्य पूज्यपाद स्वामी 'इष्टोपदेश' में कहते हैं अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः। ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः।। अर्थः- अज्ञानी की उपासना अज्ञान को, किन्तु ज्ञानी की शरण ज्ञान को प्रदान करती है, यह कथन सुप्रसिद्ध है कि जिसके पास जो है, वह वही दे सकता है। नवम शताब्दी के ग्रन्थ 'आत्मानुशासन' में पक्षोपवासी आचार्य गुणभद्र देव कहते हैं श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ । बुधनुतिरनुत्सेको लोकशता मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् ।। (आत्मानुशासन, 6) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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