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| 10 जनवरी 2011 || | जिनवाणी
द्वैत से अद्वैत की यात्रा अहंकार के विसर्जन बिना असंभव है और अहंकार-विसर्जन गुरु के प्रति समर्पण बिना असंभव है। भौतिकतावादी कहता है कि समर्पण तो पराधीनता है और कहा है ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।' इसका उत्तर है कि अनिच्छा अथवा दबाव से होने वाली विवशता तो पराधीनता है, जो दुःखदायक है, लेकिन भक्ति-वश होने वाला समर्पण इससे भिन्न इसलिये है क्योंकि उसमें परतन्त्रता संबंधी कष्ट नहीं है। गुरु शिष्य पर शासन नहीं चलाते, शिष्य स्वयं उनके अनुशासन में चलता है। अधिकारपूर्ण-शासन और समर्पणपूर्ण-अनुशासन को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। गुरु शिष्य को यन्त्रवत् संचालित नहीं करते, सम्यक्-पुरुषार्थ सिखाते हैं। सर्वप्रथम अंगुलि पकड़ कर चलाते हैं, पश्चात् स्वावलम्बी बना देते हैं । यह तो दुःख-मुक्ति का मार्ग है, इसे दुःख समझना अविवेक है।
जिस प्रकार एक अनगढ़-पाषाण को कोई कुशल शिल्पी भगवान् का आकार प्रदान करता है, उसी प्रकार गुरु शिष्य का शुद्धीकरण करते हैं। आचरण ही दोनों के जीवन की शोभा है अतः पद की गरिमा को अखण्डित रखने के लिये वे कभी चारित्र की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। सत्य-निष्ठा आस्था पर आधारित है इसलिये शिष्य अपने गुप्ततम दोष भी गुरु से नहीं छिपाता और गुरु कण्ठगत-प्राण होने पर भी उसके दोष प्रकट नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि अपराध का प्रचार अपराधी के सुधार में बाधक है। अपमानित दोषी दोष-मुक्त तो नहीं होता, किन्तु लोक-लाज छोड़ बैठता है अथवा गुप्तदोषी बन जाता है। गुरु उसे इस पतन से बचाते हैं। गुरु पापी से घृणा नहीं करते, उसे पापों से घृणा करा देते हैं। उनका वात्सल्य हत्यारे को भी सन्त में बदल देता है।
गुरु शिष्य को जीवन-निर्वाह की संकीर्ण परिधि से बाहर निकाल कर जीवन-निर्माण की कला सिखाते हैं। वे ही निर्वाण का मार्ग दिखाते हैं। वस्तुतः गुरु एक अलौकिक चिकित्सक हैं, शिष्य रोगी है, कर्म रोग है एवं संयम-साधना औषध है। प्रत्येक रुग्ण का उपचार क्या समान हो सकता है? विवेकी शिष्य जानता है कि जब गुरु किसी को अधिक समय अथवा प्रोत्साहन देते हैं, तब वे पक्षपात नहीं करते । जटिल रोग से ग्रस्त मनुष्य पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। यदि वे अकारण ही किसी शिष्य पर कृपा-वृष्टि करते हैं, तो भी उसका भाग्य ही सराहने योग्य है, क्योंकि गुरु पात्रता के पारखी होते हैं। ईर्ष्या शिष्यत्व पर कलंक है।
शिष्यत्व अहंकार-विसर्जन का नाम है। गुरु शिष्य को तो पतित से पावन बना देते हैं, परन्तु उस अभिमानी का कल्याण नहीं कर पाते, जो अपने आप को गुरु से अधिक चतुर समझता है। बुद्धिमत्ता का अभिमान अस्थान में भी तर्क उत्पन्न करता है और तर्कों की परिधि से बाहर आए बिना आस्था असंभव है। आस्था के अभाव में भक्ति, भक्ति के बिना समर्पण और समर्पण बिना गुरु-शिष्य-सम्बन्ध असंभव है। गुरु बिना जीवन का रहस्य, रहस्य ही रहता है। एक युवा साहित्यकार ने कहा है
“जिसके जीवन में गुरु नहीं, उसका जीवन शुरू नहीं।"
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